Guru Purnima Special : तस्मै श्री गुरवे नम : | Sanmarg

Guru Purnima Special : तस्मै श्री गुरवे नम :

 

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है अर्थात् दो अक्षरों से मिलकर बने ‘गुरु’ शब्द का अर्थ – प्रथम अक्षर ‘गु का अर्थ- ‘अंधकार’ होता है जबकि दूसरे अक्षर ‘रु’ का अर्थ- ‘उसको हटाने वाला’ होता है।

अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है। श्री सद्गुरु आत्म-ज्योति पर पड़े हुए अंधकार को हटा देता है। इसीलिए शास्त्र गुरु स्तुति करते हुए कहते हैं-

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धकार में भटके हुए जीव की आँखें जिसने ज्ञानरूपी काजल की शलाका से खोली हैं, ऐसे श्री सदगुरु को नमन है, प्रणाम है।

ओशो कहते हंै गुरु के बारे में कि ‘गुरु का अर्थ है- ऐसी मुक्त हो गई चेतनाएं, जो ठीक बुद्ध और कृष्ण जैसी हैं, लेकिन तुम्हारी जगह खड़ी हैं, तुम्हारे पास हैं। कुछ थोड़ा सा ऋण उनका बाकी है- शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है।…गुरु एक पैराडॉक्स है, एक विरोधाभास है। वह तुम्हारे बीच भी है और तुमसे बहुत दूर भी, वह तुम जैसा है और तुम जैसा बिल्कुल नहीं, वह कारागृह में है और परम स्वतंत्र ! अगर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और है वह, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों-सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे।’ इस​ीलिए ताे गुरु वन्दना करते हुए शास्त्र में कहा गया है-

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः

सद्गुरु लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं। संतजन कहते हैं-

राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।

तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥

गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। गुरु ने जो नियम बताए हैं उन नियमों पर श्रद्धा से चलना उस संप्रदाय के शिष्य का परम कर्तव्य है। गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक ,सामाजिक आैर राजनैतिक समस्याओं को हल करना भी है। राजा दशरथ के दरबार में गुरु-वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है, जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था। गुरु की भूमिका भारत में केवल आध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है, देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। अतः सद्गुरु की ऐसी महिमा के कारण उसका व्यक्तित्व माता-पिता से भी ऊपर है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- ‘यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु’ अर्थात् जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है, नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है। गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।

शास्त्र कहते हैं-

देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे कश्चन:

गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता संशयः।।

अर्थात् – भाग्य रुठ जाने पर गुरु रक्षा करता है। गुरु रूठ जाये तो कोई रक्षक नहीं होता। गुरु ही रक्षक है, गुरु ही शिक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।

संत कबीर भी यही कहते हैं-

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥ अर्थात् भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना सम्भव नहीं है। जिसे ज्ञानियों ने आचार्य, बौद्धों ने कल्याणमित्र, जैनों ने तीर्थंकर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सद्गुरु कहा है, उस श्री गुरु से उपनिषद् की तीनों अग्नियाँ भी थर-थर काँपती हैं। त्रोलोक्यपति भी गुरु का गुणनान करते हैं। ऐसे गुरु के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं। अपने दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते हैं –

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार ,

लोचन अनंत, अनंत दिखावण हार।।

अर्थात् सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए हैं। उसने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की बंद आंखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है। आगे इसी प्रसंग में वे कहते हैं-

भली भई जुगुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि।

दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि।

अर्थात् अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा अहित होता। जैसे सामान्यजन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते हैं। वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता। जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्यजन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको न्योछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती। कहने का अभिप्राय यह है ​िक गुरु की महिमा का जितना भी गुणगान किया जाय, कम ही है। तभी तो कहा गया है-

गुरोरधिकं तत्त्वं गुरोरधिकं तपः।

तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः

अर्थात् गुरु से बढ़कर कोई धारणा नहीं, गुरु से बढ़कर कोई तप नहीं। गुरु प्रदत्त आत्म ज्ञान से परे कुछ भी नहीं है। उस गुरु को प्रणाम।

 

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