पहला बिंदु है-संवेगों को संतुलित करना
हम इस संदर्भ में देखें-धर्म का पहला सूत्र क्या है? आचार्यों ने बार-बार कहा- कषायमुक्ति: किलमुक्तिरेव-कषाय से मुक्ति ही मुक्ति है। क्रोध, मान, माया, लोभ, घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, कामवासना-ये जितने संवेग हैं, इनसे मुक्त होने का नाम ही मुक्ति है। जो स्वास्थ्य का सूत्र है, वही धर्म का भी सूत्र है। जो धर्म का सूत्र है, वही स्वास्थ्य का भी सूत्र है। ऐसा लगता है आज के चिकित्सा विज्ञानी और मनोचिकित्सक भी कुछ भ्रांति में हैं। वे लोग मानसिक तनाव को ज्यादा महत्त्व देते हैं। यह बात सही नहीं है। बीमारी का मूल कारण जितनी भावात्मक परिस्थितियां अथवा इमोशन्स हैं, उतनी मानसिक या मेंटल प्रॉब्लम्स नहीं हैं। ये भावनात्मक समस्याएं मानसिक समस्या से कहीं ज्यादा भयंकर हैं। वस्तुत: मानसिक समस्याएं भावात्मक समस्याओं से ही पैदा होती हैं। हमारे भाव जब मन पर उतरते हैं, मनोभाव बनते हैं, तब वे समस्याएं पैदा करते हैं।
स्वास्थ्य का दूसरा बिंदु मादक द्रव्यों से बचना
आज बहुत सारी बीमारियां नशे की आदत के कारण हो रही हैं। लोग जानते भी हैं कि तंबाकू से कैंसर की बीमारी होती है, फेफड़े खराब हो जाते हैं, हार्टअटैक की संभावना बढ़ जाती है। शराब जिम्मेदार है लिवर को खराब करने के लिए। आदमी शराब पिये और लिवर खराब न हो, यह संभव ही नहीं। लोग इसके दुष्परिणाम को जानते हैं, फिर भी नशा करते हैं।
तीसरा बिंदु है-इंद्रियों की उच्छृंखलता पर नियंत्रण
आज का युग इंद्रियों की उच्छृंखलता का युग है। इंद्रिय-संयम को आज पुराने जमाने की बात कहा जा रहा है। आज मुक्तता की सर्वत्र चर्चा हो रही है। देश मुक्त हो, इतना ही नहीं, हर व्यक्ति मुक्त हो, ऐसी बात कही जा रही है। मुक्त यौनाचार की भी हिमायत हो रही है। पश्चिमी देशों ने वैज्ञानिक प्रगति तो बहुत की है किन्तु इंद्रिय संयम की अवहेलना भी उसी अनुपात में की है। आज उसके परिणाम सामने आ रहे हैं। हिन्दुस्तान में उतनी भयंकर बीमारियां आज प्रचलित नहीं हो पाई हैं जितनी पश्चिमी देशों में। अभी यहां उतना पागलपन नहीं है जितना वहां है। जहां मुक्त यौनाचार होगा, इंद्रियों की उच्छृंखलता होगी, इंद्रियों के प्रति संयम बरतना पुराने जमाने की बात मानी जाएगी, वहां बीमारियों का तेजी से बढऩा स्वाभाविक है और आज वैसा ही हो रहा है।
चौथा बिंदु है आहार की शुद्धता
इतना ज्ञान विकसित होने के बावजूद आहार के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं है। न रोटी बनाने वाले को आहार के विषय में कोई जानकारी है, और न उसे खाने वाले को आहार के विषय में कोई जानकारी है। ऐसा मान रखा है कि भूख का काम है लगना और आदमी का काम है भूख लगने पर पेट को भर डालना। इससे ज्यादा भोजन के विषय में सोचने की जरूरत नहीं है। यही अस्वास्थ्य का हेतु बनता है। स्वास्थ्य के लिए आहार की विशुद्धता पर चिंतन जरूरी है। ज्यादा चीनी खाना, ज्यादा नमक खाना, ज्यादा चटपटे खाना, ऊटपटांग चीजें खाना और ज्यादा द्रव्य खाना, बहुत सारी चीजें एक साथ खाना, ये सब बीमारियों के लिए जिम्मेदार हैं। भगवान महावीर ने कहा- ऊनोदरी करो, रसों का परित्याग करो।
पांचवां बिंदु है श्रम
जो व्यक्ति उचित श्रम नहीं करता, वह कभी स्वस्थ नहीं रह सकता। श्रम नहीं करना आज बड़प्पन की निशानी मान ली गई है। बड़ा आदमी श्रम क्या करेगा? क्यों झाडू लगाना, पानी भरना- ये सब तो छोटे आदमियों के काम हैं। बड़ा आदमी कभी परिस्थितिवश झाडू लगाएगा तो भी छिपकर लगाएगा। वह सोचेगा कि किसी ने झाडू लगाते देख लिया तो पोजीशन खराब हो जाएगी। ऐसी सोच इसलिए बनी कि श्रम को बहुत हल्का, छोटा और निकृष्ट काम मान लिया गया। एक समय था, महिलाएं अपने घर में ही स्वयं आटा पीसा करती थीं, कुएं से पानी भर लाती थीं, घर की पूरी सफाई करती थीं। उन्हें इस काम में बहुत श्रम करना पड़ता था किन्तु इसका परिणाम यह होता कि घर में कभी डॉक्टर बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
हमारी प्रत्येक कोशिका को रक्त की जरूरत होती है और रक्त श्रम के बिना पहुंचता नहीं है। क्या आप कभी आसन करते हैं? व्यायाम करते हैं? प्राणायाम करते हैं? नहीं, शायद आप इसे जरूरी नहीं मानते। आसन और व्यायाम के बिना शरीर को उचित मात्रा में रक्त उपलब्ध नहीं होता। हर अवयव तक रक्त नहीं पहुंच पाता। आसन, व्यायाम और प्राणायाम, ये तीनों शरीर को स्वस्थ रखने की अनिवार्य अपेक्षाएं हैं। श्रम और व्यायाम शरीर में नई ताजगी भरते हैं।