
कोलकाता: यह शहर अपनी कलात्मक सुंदरता के लिए पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध है। पूजा हो या किसी भी तरह का उत्सव हो यहां बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। ऐसे में काली पूजा उत्सव नजदीक है और पूरा कोलकाता उत्सव के उत्साह से भरा हुआ है। ऐसे मौके पर मूर्ति बनाने वाले कारीगरों को देवी काली की मूर्तियों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका, युगांडा और संयुक्त अरब अमीरात से ऑर्डर मिल रहे हैं। कोलकाता के कुमारटोली से देवी की मूर्तियां विदेश भेजे जाने के लिए तैयार हैं।
बता दें कि कारीगर देवी काली की जटिल रूप से तैयार की गई मूर्तियों को पूरा करने के लिए घंटों काम कर रहे हैं। काली पूजा हिंदुओं के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण त्योहार है, खासकर पश्चिम बंगाल राज्य में। बंगाल में तैयारियां जोरों पर हैं, और कोलकाता को रोशनी के त्योहार को जीवंत तरीके से मनाते हुए देखना वास्तव में खुशी की बात है।
क्यों मनाया जाता है यह उत्सव?
बता दें कि दीवली हिंदुओं का खास त्योहार है। दीवाली मनाने की शुरूआत तब से हुई है जब श्रीराम वनवास काट कर 14 वर्ष बाद घर आते हैं। बता दें कि मंथरा की बातों में आकर कैकई ने दशरथ से राम को वनवास भेजने का वचन मांग लिया। इसके बाद श्रीराम को वनवास जाना पड़ा। 14 वर्षों का वनवास बिताकर जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। तभी से दीपावली मनाई जाती है। यह उत्सव शक्ति या देवी काली की पूजा के आसपास केंद्रित है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। इसे श्यामा पूजा के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि देवी काली को अक्सर श्यामा के नाम से जाना जाता है, जो काले या गहरे रंग का प्रतीक है। यह त्योहार बिहार, ओडिशा, असम, त्रिपुरा और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में भी मनाया जाता है। यह त्यौहार आध्यात्मिक ‘अंधकार पर प्रकाश की, बुराई पर अच्छाई की और अज्ञान पर ज्ञान की जीत’ का प्रतीक है।
मूर्ति बनाने वाले कारीगर ने बताया
बता दें कि कोलकाता के एक कारीगर मिंटू पाल, जो देवी काली की मूर्तियाँ विदेशों में बेचने का निर्यात करते हैं। मिंटू पॉल ने बताया कि माँ काली की मूर्ति का विदेशों में उतना निर्यात नहीं होता था, लेकिन इस वर्ष यह अधिक निर्यात किया जा रहा है।
उन्होंने बताया कि 3 से 4 फीट की मूर्ति की कीमत करीब 60-70 हजार रुपये होती है और अगर मूर्ति थोड़ी बड़ी हो तो कीमत 1 लाख रुपये से ऊपर होती है। विदेशों में ज़्यादातर फ़ाइबर से बनी मूर्तियाँ निर्यात की जाती हैं। मिट्टी की मूर्ति को विदेश में निर्यात करना जोखिम भरा होता है क्योंकि इसके टूटने का डर रहता है, जबकि फ़ाइबर से बनी मूर्ति को आसानी से ले जाया जा सकता है और कम से कम 3 साल तक उसकी पूजा की जा सकती है।