कोलकाता: ‘अबला तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ यह पंक्ति, कवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रसिद्ध प्रबंध काव्य 'यशोधरा' से ली गई है। जो आज की कहानी में बिल्कुल सटिक बैठती है। यह कहानी है ब्रिटिश राज में हुए एक हत्याकांड की। जब महिलाओं को समाज में उतना तवज्जों नहीं दिया जाता था।
ये किस्सा है साल 1872-73 की। हुगली नदी के पास बने एक बिल्डिंग के बाहर सैंकड़ों की संख्या में लोग टिकट देकर अंदर जा रहे थे लेकिन ये टिकट कोई सिनेमा हॉल या नाटक देखने वालों का नहीं था बल्कि सेशंस कोर्ट के अंदर जाकर एक केस की सुनवाई देखने के लिए था। ये वही केस था, जिसने पूरे बंगाल को हिलाकर रख दिया था। जिसने ब्रिटिश सरकार के नाक में दम कर दिया था। इस केस के लिए ब्रिटिश सरकार ने तो अपने नियम को भी तांक पर रख दिया था। इस केस को बंगाल के इतिहास का सबसे विवादित केस माना जाता है।
इस केस का आलम ये था कि इसकी सुनवाई को देखने के लिए लोग भारी संख्या कोर्ट में जमा होने लगे थे। तब सरकार ने भीड़ को नियंत्रित करने लिए टिकट लगाने का दांव खेला, बावजूद इसके भीड़ नहीं रुकी तो एक नियम ये बनाया गया कि जो इंग्लिश जानता हो वहीं सिर्फ कोर्ट के अंदर जाएगा। अब आप सोच रहेंगे होंगे कि ऐसा क्या था इस केस में? दरअसल इस केस का नाम था तारकेश्वर एलोकेशी केस और ये कहानी थी प्यार, धोखे और हत्या की। जिसमें इल्जाम था पति पर लेकिन कोर्ट में खड़े दो मुजरिम थे।
क्या है पूरी कहानी
पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में स्थित तारकेश्वर मंदिर का निर्माण राजा भारमल्ला द्वारा 1729 में की गई थी। इस केस की कहानी इसी मंदिर से जुड़ी हुई है। जब अंग्रेज यहां आए तब 1860 में इंडियन पीनल कोड लागू किया गया था। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि 1857 की क्रांति के पीछे का मुख्य कारण धर्म ही था। क्योंकि, तब अंग्रेजी हुकूमत के अंदर जो हिंदू सैनिक काम करते थे। उनके बीच ये अफवाह उड़ी थी कि नए कारतूसों को बनाने में गाय-सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है। इस कारतूस को बंदूक में भरने से पहले मुंह से काटना पड़ता था। जिससे भारतीय सैनिकों का धर्म भ्रष्ट होता था।
इसी बात से नाराज होकर एक सैनिक मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया, जो बाद में 1857 की क्रांति का रूप ले लिया था। इस क्रांति के बाद अंग्रेज़ समझ गए थे कि भारतीय समाज अपने धर्म में कोई बदलाव बर्दाश्त नहीं कर सकता है। इसलिए 1860 में जब IPC लागू हुआ तो धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं को उससे दूर रखा गया। इस आईपीसी की धारा 497 के तहत ये कहा गया कि अगर कोई मर्द किसी दूसरी शादीशुदा औरत के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, तो पति की शिकायत पर इस मामले में उस पुरुष को अडल्ट्री कानून के तहत आरोप लगाकर मुकदमा चलाया जा सकता था। इसी कानून को लेकर 1873 में हुए तारकेश्वर स्कैंडल ने एक नई बहस को जन्म दिया था।
एलोकेशी, नोबिन और तारकेश्वर के महंत की कहानी
दरअसल एलोकेशी नाम की छोटी लड़की होती है। जिसकी शादी एक कुलीन ब्राह्मण परिवार के घर के लड़के नोबीन चंद्र से करा दी जाती है। नोबीन कोलकाता में मिलिट्री प्रेस में नौकरी किया करता था। अब कलकत्ता जैसे बड़े शहर में गांव की लड़की अकेली कैसे रहेगी, ये सोचकर नोबिन ने एलोकेशी को उसके पिता के पास गांव भेज दिया। जो हुगली में पड़ता था। अब कभी-कभी समय निकालकर नोबिन अपनी पत्नी से मिलने गांव चला जाया करता था। सब ठीक चल रहा था लेकिन शादी के कुछ साल बीतने के बावजूद दोनों का कोई बच्चा नहीं हुआ था। गांव व आस-पड़ोस के लोग बच्चा न होने पर एलोकेशी को ताना देने लगते हैं। एलोकेशी इससे बहुत परेशान थी, तभी किसी ने एलोकेशी के पिता से कहा कि अपनी बेटी को ले जाकर तारकेश्वर मंदिर के एक महंत को दिखाएं।
महंत से बने एलोकेशी के संबंध
जिसका नाम था महंत माधवचंद्र गिरी। महंत ये दावा करता था कि उसके इलाज से बांझ औरतें भी गर्भवती हो जाती हैं। तब जादू-टोना और तंत्र मंत्र पर लोग जल्दी ही विश्वास कर लिया करते थे। तब समाज का ताना-बाना कुछ ऐसा ही था। अब परिवार के कहने पर एलोकेशी ने महंत से इलाज करवाना तय किया और मंदिर जाने लगी। इसी दौरान एलोकेशी और महंत माधवचंद्र गिरी के बीच अवैध संबंध बनने लगे।
हालांकि, कुछ इतिहास के पन्नों को टटोलते हैं तो अलग-अलग तरह की थ्योरी सामने आती है। कुछ रिपोर्ट में बताया गया कि शुरूआत में एलोकेशी ने मना किया लेकिन वो महंत के दवाब और दबदबे से डरकर कभी मुंह नहीं खोला, कुछ रिपोर्ट ये कहते हैं कि दोनों के बीच सहमति से संबंध बनने लगे थे। कुछ रिपोर्ट ये कहते हैं कि 15-16 साल की सुंदर एलोकेशी को देखकर महंत का चरित्र डोल गया। हालांकि, सबका निष्कर्ष यही है कि दोनों की बीच संबंध लगातार बनने लगे थे।
नोबिन ने एलोकेशी का गला काट दिया
इसी दौरान एलोकेशी का पति नोबिन, जब कुछ दिनों बाद उससे मिलने आया तो गांव के ही कुछ लोगों ने नोबिन को ताना मारते हुए ये कहा कि तुम्हारी पत्नी का लगातार आना-जाना महंत के पास है। इस बात को जब नोबिन ने एलोकेशी से पूछा तो एलोकेशी ने माफी मांगते हुए सच्चाई को स्वीकारा। इसी दौरान दोनों के बीच खूब बहसबाजी हुई और गुस्से में आकर नोबिन ने 27 मई, 1873 को एक बोटी (बांग्ला शब्द), कुछ जगह इसे फासुल या पिरदाई भी कहा जाता है। इसी बोटी से एलोकेशी का गला काट दिया। अब गला काटने के बाद नोबीन खुद पुलिस के पास गया और गुनाह कबूल कर फांसी देने की मांग करने लगा।
मामला पूरी तरह से आईने की तरह साफ था कि नोबिन ने खून किया और गुनाह कबूलते हुए खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। मामला हुगली सेशंस कोर्ट पहुंचा। नोबिन पर धारा 302 के तहत मुकदमा चलना था लेकिन यहां पर ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू कानून में एक पेंच फंस जाता है। पेंच ये था कि 1860 में बने धारा 497 के मुताबिक इस मामले में महंत के खिलाफ भी अडल्ट्री का केस बनता है।
वोमेश चंद्र बनर्जी ने लड़ा नोबिन का केस
अब चूंकि इस केस में तारकेश्वर के एक महंत का नाम आया तो मामला तुरंत हाईफाई हो गया। तभी नोबिन का केस लड़ने के लिए सामने आए उस जमाने में बंगाल के सबसे नामी वकील वोमेश चंद्र बनर्जी, जो आगे जाकर कांग्रेस के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष भी बने। वोमेश चंद्र बनर्जी को जब इस केस के बारे में पता चला तो वे नोबिन का केस मुफ्त में लड़ने को तैयार हो गए।
कोर्ट में तब ये दलील दी गई कि एलोकेशी और महंत के बीच के अवैध संबंधों को जानने के बाद भी नोबिन उसे वहां से साथ में ले जाने को तैयार था। तभी महंत के कथित गुंडों ने उन्हें गांव छोड़ने नहीं दिया। इसी गुस्से में आकर नोबिन ने एलोकेशी की हत्या कर दी क्योंकि नोबिन ने सोचा की एलोकेशी अगर मेरी नहीं हो सकी तो महंत की भी नहीं होने देगा। यहां गौर करने वाली बात ये है कि उस जमाने में ज्यूरी कोर्ट हुआ करता था। ज्यूरी कोर्ट का मतलब ये है कि लोगों का एक पैनल मामले में फैसला करता था। हालांकि, आजादी के काफी समय बाद इस सिस्टम को खत्म कर दिया था।
लोगों के बीच बढ़ने लगी केस को लेकर दिलचस्पी
अब इस केस की सुनवाई जैसे-जैसे बढ़ रही थी लोगों की दिलचस्पी भी बढ़ने लगी थी। वो कहते हैं ना कि अपने घर में क्या चल रहा है लोग नहीं देखते हैं लेकिन पड़ोस में किसने किसको मारा, किसके किस्से संबंध है ये हर कोई जानना चाहता है। दरअसल भारतीय समाज ताना-बाना कुछ इसी तरह से बुना गया है कि लोग दूसरों के घरों में झांकना ज्यादा पसंद करते हैं। इस केस में लोगों की हमदर्दी नोबिन के प्रति दिन पर दिन बढ़ रही थी। वहीं हर दिन अखबारों में इस खबर के चर्चे खूब थे। इसलिए अब हर दिन हजारों की संख्या में लोग कोर्ट पहुंचने लगे थे।
वहीं इस मामले में जो ज्यूरी थे वो सभी भारतीय ही थे। उन्होंने पूरे केस की सुनवाई की और निष्कर्ष निकाला की नोबिन बेगुनाह है उसने गुस्से में आकर ये कदम उठाया, वो खुद तो खुद पीड़ित है। क्योंकि, उसकी बीवी ने उसे धोखा दिया। ऐसी स्थिति में कोई भी आदमी ऐसा ही करेगा, बता दें कि ये वो दौर था जब औरतों को उतना तवज्जों नहीं मिलता था और औरत की जान से ज्यादा उसकी तथाकथित इज्जत को एक आडंबर के रूप में दिखाया जाता था कि औरत की इज्जत चली गई मतलब औरत औरत नहीं रही। इसलिए नोबिन को ज्यूरी ने पीड़ित बताया लेकिन कोर्ट के जज ने ज्यूरी के फैसले को अस्वीकार करते हुए मामला हाईकोर्ट में भेज दिया।
नोबिन को मिली सजा, लोग हुए नाराज
कोर्ट के इस फैसले के बाद जनता नाराज हो गई क्योंकि लोगों के मुताबिक भी पीड़ित नोबिन था। जिसकी पत्नी का दूसरे आदमी से संबंध बना था। दूसरी तरफ इस मामले में अडल्ट्री का एक और केस सेशंस कोर्ट में चल रहा था। इस कोर्ट की कार्रवाई के बाद महंत को अडल्ट्री का दोषी पाया गया और उसे 3 साल कैद की सजा और 2000 रुपये का जुर्माना लगाया गया। जबकि हाईकोर्ट ने नोबिन को पत्नी की हत्या करने के मामले दोषी पाया और उसे आजीवन कारवास की सजा सुनाई। अब इस केस का फैसला आने लोग बंगाल के लोग भड़क गए कि जिसने उसकी पत्नी के साथ गलत किया उसे तीन साल और जो कथित रूप से पीड़ित है उसे आजीवन कारावास।
इस केस की चर्चा पूरे बंगाल में फैल चुकी थी। जैसे कि पहले बताया अडल्ट्री का कानून अंग्रेज़ों का बनाया था, इसलिए उसका महत्व कम था। लोगों में गुस्सा बढ़ने लगा कि ये कैसा अडल्ट्री कानून है कि जिसने ये कांड किया और करवाया उसे सिर्फ तीन साल। तब पूरे बंगाल में नोबिन को छुड़वाने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू किया और लगभग 10 हजार लोगों ने हस्ताक्षर कर नोबिन की रिहाई की मांग की।
तब ब्रिटिश सरकार की हालत ऐसी थी कि ‘दूध का जला, छाछ भी फूंक कर पिता है’। सरकार को ये डर लगने लगा कि कहीं 1857 की क्रांति की तरह ये केस भी कोई क्रांति का रूप न ले ले। आनन-फानन में ब्रिटिश सरकार मामला बिगड़ता देख 3 साल जेल में काटने के बाद नोबिन को रिहा कर दिया गया। दूसरी तरफ महंत माधवचंद्र गिरी भी 3 साल सजा काटने के बाद बाहर आए और दोबारा तारकेश्वर मंदिर के महंत बना दिए गए।