

दीमापुर : नगालैंड विश्वविद्यालय के जनजातीय अनुसंधान केंद्र ने विश्व के ‘आदिवासी लोगों के अंतरराष्ट्रीय दिवस 2025’ के उपलक्ष्य में ‘स्वदेशी मुद्दे और पहचान : प्रायद्वीपीय भारत बनाम पूर्वोत्तर’ विषय पर एक वेबिनार का आयोजन किया।
वेबिनार को संबोधित करते हुए प्रख्यात समाजशास्त्री और पूर्वोत्तर सामाजिक अनुसंधान केंद्र (एनईएसआरसी), गुवाहाटी के निदेशक डॉ. वाल्टर फर्नांडीस ने बताया कि भारत और विश्व स्तर पर स्वदेशी शब्द के अलग-अलग अर्थ हैं, नगालैंड विश्वविद्यालय द्वारा रविवार को जारी एक विज्ञप्ति में यह जानकारी दी गयी। उन्होंने कहा, ‘यह शब्द प्रायद्वीपीय और पूर्वोत्तर के संदर्भों में अलग-अलग रूप से लागू होता है।’डॉ. फर्नांडीस ने अपने व्याख्यान में प्रायद्वीपीय और पूर्वोत्तर के आदिवासी अनुभवों की तुलना की। उन्होंने कहा कि प्रायद्वीपीय भारत में उत्पत्ति के मिथक, पवित्र उपवन और क्रमिक विजय पहचान को आकार देते हैं, जिसमें भूमि, जल और जंगल स्वदेशी का मूल है और वे संसाधन जो औपनिवेशिक शासन के तहत खतरे में थे। हालांकि, उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर में पहचान प्रथागत कानूनों और स्वायत्तता के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित होती है। उन्होंने कहा कि समय के साथ प्रायद्वीपीय संघर्ष विस्थापन और भूमि अलगाव से लड़ने से आगे बढ़कर एक प्रमुख धर्म द्वारा अपनी पहचान थोपे जाने के सांस्कृतिक वर्चस्व का विरोध करने तक पहुंच गए हैं। इसके विपरीत, उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर स्वायत्तता और प्रथागत कानूनों को प्राथमिकता देता आ रहा है, जबकि अब उसे राष्ट्रीय विकास के नाम पर बाहरी लोगों, प्रवासियों, गैर-आदिवासियों और राज्य द्वारा भूमि और संसाधनों से बढ़ते अलगाव का सामना करना पड़ रहा है। पूर्वोत्तर में मूलनिवासी समुदायों के बीच भूमि नियंत्रण को लेकर बढ़ते मतभेदों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि ‘जनजातियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ गयी है।’ यह देखते हुए कि मूलनिवासी मुद्दे ने एक नया मोड़ ले लिया है, फर्नांडीस ने इस बात पर जोर दिया कि मूलनिवासी समुदायों को अपनी चुनौतियों का समाधान करने के लिए सामूहिक रूप से काम करने की आवश्यकता है, यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो एक दिन में नहीं हो सकती। उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए नेताओं को समानता, न्याय और सुलह पर आधारित विकास को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। उन्होंने प्रतिभागियों से आग्रह किया कि वे इस बात को समझें कि स्वदेशी मुद्दे एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं, जो बदलती पहचानों, विवादित भूमि राजनीति और विकास के बढ़ते दबावों से प्रभावित हैं। इस कार्यक्रम में 100 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया, जिनमें विभिन्न संस्थानों के शिक्षक, विद्वान, स्नातकोत्तर छात्र और स्वतंत्र शोधकर्ता शामिल थे।