यह प्रसंग 1916 का है जब प्रथम विश्व युद्ध के कारण सभी वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे, ऐसे में दैनिक जीवन में आने वाली वस्तुएं भी आमजनों को मयस्सर नहीं थी तो पढ़ने और पढ़ाने के साधन जुटाना तो आकाश कुसुम था। कागज के साथ -साथ रंग के भाव भी बढ़ जाने से वे मिल नहीं रहे थे।
तब भूगोल के अध्यापक ने विवश होकर छात्रों से कहा -‘बच्चों,तुम लोग जो नक्शा बनाओगे,उसमें चने के फूल से ब्रिटिश क्षेत्रों को,सरसों के फूल से देशी रियासतों को और तीसी के फूल से समुद्र और नदियों को रंगों, और फिर उनके नाम स्पष्ट लिखावट में लिखकर दो दिन बाद यह गृहकार्य करके लेकर आओ। ‘
दो दिन बाद सभी बच्चों ने – अपने -अपने बनाये और रंगे नक्शों को जमा कर दिया। अध्यापक ने उन्हें देखना शुरू किया। एक बच्चे के बनाये नक्शे पर रंगों की खिचड़ी हो गई थी और लिखावट भी ऐसी टेढ़ी -मेढ़ी थी कि गुरुजी का पारा गर्म हो गया। उन्होंने उस बच्चे के कान के नीचे एक थप्पड़ जड़ दिया। उस बच्चे ने हाल में ही कान छिदवाया हुआ था। थप्पड़ लगते ही उसके कान से खून बहने लगा। यह देखकर मास्टरजी घबरा गए। किसी तरह खून का बहना रुका।
छुट्टी होने पर बच्चा अपने घर चला गया पर उसके घर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी और बच्चा भी 4 -5 दिन बाद ही स्कूल आया। तब गुरुजी ने उसके कान ठीक देखें और राहत की सांस ली इस घटना ने उनके अंदर बच्चे और उनके अभिभावक के प्रति हमदर्दी उत्पन्न कर दी। बच्चे को फिर कभी भी नहीं मारा। उल्टे उस पर ध्यान देने लगे। बच्चा भी अपने गुरुजी का बहुत सम्मान करने लगा।
लगभग 5 दशक के बाद वह अपने गुरुजी से मिलने आया। गुरुजी स्कूल से अवकाश प्राप्त (रिटायर हो )कर चुके थे। अब उनको दिखाई भी कम देता था। वह पहले तो अपने शिष्य को पहचान ही नहीं पाए, पर चरण स्पर्श करते हुए शिष्य ने जब कान पर थप्पड़ का जिक्र किया तो उन्हें सब स्मरण हो गया और फिर उसे अपने कलेजे से ऐसे लगा लिया जैसे कोई छोटा बच्चा हो !
गुरुजी की आंखें नम हो गईं,और वह विद्यार्थी भी अपने आंसुओं को रोक नहीं पाया।
गुरुजी ने भर्राये स्वर से मुस्कुराते हुए कहा –‘मुझे नहीं पता था कि तुम ही हजारीप्रसाद द्विवेदी हो जिसके कान मेरे कारण फट गए थे।’
रुंधे गले से,सकुचाते हुए आचार्य हजारीप्रसाद जी ने कहा -‘गुरुजी ! मैं बना भी तो आप की बदलौत हूं लेकिन मेरी लिखावट आज भी टेढ़ी मेढ़ी ही है। ‘
गुरुजी ! लिखावट आज भी टेढ़ी मेढ़ी ही है !
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