दुर्गापूजा : इस बार ढाकुरिया में 'काबुलीवालों' का होगा 'ख़ुश-आमदीद'

कोलकाता में पहली बार दिखेंगे काबुल, कांधार के नजारे
Tapan Sinha's 'Kabuliwalah' (1957)
Tapan Sinha's 'Kabuliwalah' (1957)
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कोलकाता: कोलकाता की दुर्गापूजा हर साल नए-नए तरीकों से शहर को सजाती है। लेकिन इस बार ढाकुरिया सर्वजनीन दुर्गोत्सव (डीएसडी) समिति अपनी 96वीं वर्षगांठ पर समय और भावनाओं की अद्भुत यात्रा कराने जा रही है। थीम है—‘काबुलीवाला’।

सुदूर अफगानिस्तान की धूलभरी गलियों से लेकर कोलकाता की गलियों तक, सूखे मेवों की खुशबू और इंसानी रिश्तों की नरमी इस बार पंडाल में साकार होगी। कलाकार सौरव काली और परिमल पाल अपने दृश्य कथन से काबुल, कांधार और बलूचिस्तान की झलक को कोलकाता में दिखाएंगे । वहीं विश्वजीत साहा और स्वरूप सामंत की रोशनी, तरुण मन्ना और कमल सामंत की साज-सज्जा इस भावभूमि को जीवंत बनाएगी।

थीम की मूल प्रेरणा है 1892 में लिखी गई गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अमर कहानी‘काबुलीवाला’। रहमत, एक अफगानी सूखे मेवों का व्यापारी और नन्हीं मिन्नी के बीच का मासूम रिश्ता जो पिता-पुत्री की स्मृतियों, हंसी-ठिठोली और समय की निर्ममता में पला। वह रिश्ता जो जेल की सलाखों में भी जिंदा रहा, लेकिन आठ साल बाद लौटकर रहमत को मिली सिर्फ खामोशी और विस्मृति।

कहानी का यह दर्द और ममता के रंग को बंगाली सिनेमा ने भी अमर बना दिया। 1957 में तपन सिन्हा की फिल्म ‘काबुलीवाला’ ने छवि विश्वास के अभिनय को अमरत्व प्रदान किया। नन्हीं सी टिंकू टैगोर (शर्मीला टैगोर की बहन) की भोली सूरत और रहमत की आंखों की गहराई दोनों ने दर्शकों की आत्मा में घर बना लिया। अब वही कथा दुर्गापूजा के रंगमंच पर फिर से जीवंत होगी।

पूजा कमेटी के सदस्य सुकृति मित्र ने कहा, दुर्गापूजा हमारे लिए महज एक उत्सव नहीं, यह कहानी है घर लौटने की भी। रवीन्द्रनाथ की अमर कहानी के माध्यम से इस बार ढाकुरिया दुर्गोत्सव में देवी की प्रतिमा के साथ-साथ सजीव होगा इंसान और इंसान के बीच रिश्तों का सबसे मासूम रंग प्यार, जो सीमाओं से बड़ा है, और यादें, जो समय से भी गहरी हैं।

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