

कोलकाता: महानगर कोलकाता की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत में सिख समुदाय का योगदान जितना गहरा है, उतना ही पुराना भी। इस संबंध की जड़ें 1510 ईस्वी में जुड़ी हैं, जब सिख धर्म के संस्थापक महान गुरु नानक देव जी अपनी पहली पूर्व यात्रा के दौरान यहां आए थे। कहा जाता है कि उन्होंने वर्तमान बड़ाबाजार क्षेत्र में लगभग 12 दिन प्रवास किया था। वह वही स्थान है जहां आज गुरुद्वारा बड़ा सिख संगत स्थित है।
किंवदंती है कि उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों से उस समय फैली महामारी का उपचार किया था। बाद में, सिख समुदाय के 9वें गुरु तेग बहादुर साहिब सन् 1668 में इस पवित्र स्थल पर आए और आदेश दिया कि यहां एक स्थायी गुरुद्वारा बनाया जाए, जहां नियमित धार्मिक सभा और चौबीस घंटे लंगर चलता रहे। यह वही परंपरा है जो आज भी कोलकाता के सिख समुदाय की आत्मा में बसी हुई है।
इस जगह से थोड़ी दूर स्थित कोलकाता विश्वविद्यालय इस ऐतिहासिक जुड़ाव का एक और प्रमाण है। यह देश का पहला विश्वविद्यालय था जिसने सिख धर्म पर शोध और शिक्षा की औपचारिक शुरुआत की थी। 1914 का बजबज कांड भी इस शहर और सिखों के बीच की गाथा का महत्वपूर्ण अध्याय है। कनाडा में प्रवेश से वंचित 350 सिखों को जबरन कोलकाता वापस लाया गया था और ब्रिटिश पुलिस ने उन पर गोली चला दी थी, जिसमें 18 सिख शहीद हुए थे।
विभाजन के बाद कोलकाता सिखों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना बन गया। यहां उन्होंने नयी जिंदगी की शुरुआत की। कुछ ने कारोबार शुरू किए, कुछ ने शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया। 1933 में स्थापित खालसा हाई स्कूल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिसने सिख समुदाय की शिक्षा में अग्रणी भूमिका निभायी। बाद के वर्षों में, सिखों ने शहर की खानपान संस्कृति को नयी दिशा दी।
हरीश मुखर्जी रोड पर 90 साल पुराना बलवंत सिंह ईटिंग हाउस, गरियाहाट का ढाबा और घई परिवार का क्वालिटी रेस्टोरेंट ये सभी कोलकाता के स्वाद और सिख परंपरा का संगम हैं। आज, भले ही सिखों की नयी पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा शहर से बाहर जा बसा हो, पर भोजन और सेवा की भावना के माध्यम से उनका रिश्ता अब भी कोलकाता की धड़कनों में बसा है। यह रिश्ता धर्म, संस्कृति और मानवता के उस गूंजते संदेश का प्रतीक है, जिसे गुरु नानक देव जी पांच सदियों पहले यहां छोड़ गये थे।