स्वतंत्रता सेनानी एवं आदर्श राजनेता श्रीप्रकाश

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देश के स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रीय नेता श्रीप्रकाश का जन्म 3 अगस्त 1890 को वाराणसी के एक धनी और प्रतिभाशाली अग्रवाल परिवार में हुआ था। उनके पिता 'भारत रत्न ' डॉ. भगवान दास विश्व विख्यात दार्शनिक थे। श्रीप्रकाश के छोटे भाई चंद्रभाल वर्षों तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद के अध्यक्ष रहे थे। श्रीप्रकाश की शिक्षा कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी, लन्दन में हुई थी। यहीं से उन्होंने वकालत की डिग्री भी प्राप्त की। किन्तु उन्होंने वकालत न करके वाराणसी के 'सेंट्रल हिन्दू कॉलेज' में और बाद में 'काशी विद्यापीठ' में अध्यापन का कार्य किया। पत्रकारिता की ओर भी आकृष्ट हुए थे। पहले सी.वाई. चिंतामणि के साथ 'लीडर' में और फिर मोती लाल नेहरू के पत्र 'इंडिपेंडेंट' में भी श्रीप्रकाश ने कार्य किया। एनी बेसेंट के प्रभाव से वे 'थियोसोफिकल सोसाइटी' में सम्मिलित हुए और पंडित जवाहरलाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव और डॉ. संपूर्णानंद का सम्पर्क उन्हें राजनीति में ले आया।'होमरूल लीग' से श्रीप्रकाश का सार्वजनिक जीवन आरम्भ हुआ। 1918 से 1945 तक वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। 1934-35 में वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। सन् 1930 के 'नमक सत्याग्रह' में, 1932 के 'करबंदी आंदोलन' में और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में उन्होंने जेल की सजाएं भोगीं। वर्ष 1946 श्रीप्रकाश संविधान परिषद के सदस्य बने और स्वतंत्रता के बाद उन्हें 1947 में भारत का प्रथम उच्चायुक्त बनाकर पाकिस्तान भेजा गया। 1949 में असम के राज्यपाल रहने के बाद वे कुछ समय तक केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी रहे। श्रीप्रकाश 1952 से 1956 तक मद्रास के और 1956 से 1962 तक महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे। श्रीप्रकाश बड़े उदार विचारों के व्यक्ति थे। वे वचन के निर्वाह का सदा ध्यान रखते थे। इसमें उनके सामने छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था। एक बार उन्होंने चपरासी की बेटी के विवाह का निमंत्रण स्वीकार कर लेने पर बनारस के महाराज का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया था। कराची से उच्चायुक्त का पद छोड़ते समय उन्हें दूतावास के ड्राइवरों ने इस कारण विदाई की दावत दी थी कि अपने हर समारोह में वे ड्राइवरों का विशेष ध्यान रखते थे, जो एक नई बात थी। अच्छे वक्ता, लेखक और देशभक्त श्रीप्रकाश की एक और विशेषता थी कि वे चाहे जिस पद पर रहे हों, लोगों के पत्रों का स्वयं उत्तर देते थे। भारत सरकार द्वारा उनके ऊपर एक डाक टिकट भी जारी किया गया। श्रीप्रकाश की राष्ट्र सेवा के सम्मान में भारत सरकार ने 1957 में उन्हें 'पद्मिवभूषण' से विभूषित किया था। 23 जून 1971 को उनका स्वर्गवास हो गया। -गोपाल शरण गर्ग

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