

कोलकाता : ‘अफगानिस्तान मेरा वतन, कोलकाता मेरा मुल्क’, मध्य कोलकाता में कपड़ों की दुकान चलाने वाले मुईम खान (परिवर्तित नाम) की यह पंक्ति उनके पूरे समुदाय की भावना को बयान कर देती है। सदियों से यहाँ बसे अफगान-पश्तून, जिन्हें बंगाल वाले प्यार से ‘काबुलीवाला’ कहते हैं, न तो पूरी तरह अफगान रह गए हैं और न ही पूरी तरह भारतीय बन पाए हैं। वे एक अनोखी तीसरी दुनिया में जीते हैं – जहां दिल काबुल में बसता है, लेकिन जिंदगी कोलकाता की गलियों में सांस लेती है। कोलकाता के काबुलीवाले अब अफगानिस्तान लौटकर बसना नहीं चाहते। बस रिश्तेदारों से मिलना, शायद वहां की किसी लड़की से शादी करना और लौट आना। बाकी सब कुछ यहीं है।
रवींद्रनाथ से शुरू हुआ सफर
1892 में रवींद्रनाथ टैगोर की मशहूर कहानी ‘काबुलीवाला’ ने बंगाल के दिल में अफगानों के लिए एक मानवीय छवि गढ़ दी। उस कहानी के रहमत और छोटी मिनी की दोस्ती ने लोगों को यह एहसास कराया कि लंबा-चौड़ा, दाढ़ी वाला यह इंसान भले ही दूर देश से आया हो, दिल उसका भी बच्चे जैसा कोमल है। बाद में बंगाली और हिंदी फिल्मों ने इस छवि को और पुख्ता किया। नतीजा यह हुआ कि जो काबुलीवाले कभी घर-घर जाकर हींग-सूखा मेवा बेचते थे और जिनसे लोग डरते थे, उनके साथ धीरे-धीरे दोस्ती हो गई।
19वीं सदी के व्यापारी, आज भी ‘राज्यविहीन’
तालिबान और युद्ध से भागकर आने वाले आज के अफगान शरणार्थियों से बहुत पहले, 19वीं सदी में अफगान व्यापारी और साहूकार कोलकाता आए थे। औपनिवेशिक भारत की राजधानी होने की वजह से कलकत्ता (अब कोलकाता) उनके लिए सबसे मुफीद ठिकाना था। उस ज़माने में ये लोग घर-घर जाकर सामान बेचते थे।
कब्र यहीं
आश्चर्य की बात है कि भारत में दो-तीन पीढ़ियों से पैदा हुए कई काबुलीवालों के पास आज भी भारतीय नागरिकता नहीं है। कोई अफगान पहचान छोड़ना नहीं चाहता, कोई कागजात के झंझट से अंजान है। लेकिन हैरानी की बात शहर के कब्रिस्तानों में उनकी कब्रें हैं।
परंपरा बची है, जिंदगी बदल गई है
रविवार को मैदान में पारंपरिक कपड़े और पगड़ी पहने काबुलीवाले क्रिकेट खेलते दिखते हैं। ईद पर पूरा खान खानदान मैदान में इकट्ठा होता है। घरों में अब भी दस्तरख्वान बिछता है, हाथ कटोरे में धोए जाते हैं, काबुली पुलाव और शोरबा परोसा जाता है।
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