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धर्मेंद्रः जब सुरैया के आकर्षण में बंधे चले गये मुंबई

धर्मेंद्र के फिल्मी सफर की शुरुआत बड़े दिलचस्प तरीके से हुई थी। कहते हैं कि बचपन में उन्होंने अभिनेत्री सुरैया की फिल्म दिल्लगी देखी थी। उसके बाद फिल्मों को लेकर उनका जुनून ऐसा चढ़ा कि लुधियाना जिले के छोटे से गांव नसरली में जन्में धर्मेंद्र ने मुंबई तक का एक यादगार सफर तय किया जो सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो चुका है।

हेडमास्टर का बेटा बना फिल्म अभिनेता

अपने 65 साल के फिल्मी करियर में 300 से ज्यादा फिल्में करने वाले धर्मेंद्र का जन्म 8 दिसंबर 1935 को पंजाब के लुधियाना जिले के नसरली गांव में हुआ था। उनके पिता स्कूल हेडमास्टर थे और उनका बचपन इसी गांव और पास के साहनेवाल गांव में बीता। धर्मेंद्र का पूरा नाम धरम सिंह देओल है, उनके पिता केवल किशन सिंह देओल और मां सतवंत कौर थीं। अभिनेता धर्मेंद्र का नसरली गांव में बहुत साधारण घर हुआ करता था, उन्हें बचपन से गांव, खेत, हरियाली और प्रकृति से बहुत प्रेम था। वो अपने दोस्तों के साथ इसी गांव में खेलते थे। धर्मेंद्र के पिता केवल किशन सिंह एक सख्त हेडमास्टर के रूप में जाने जाते थे, इसके बावजूद धर्मेंद्र का मन पढ़ाई में नहीं लगता था।

पढ़ाई में मन नहीं लगा

धर्मेंद्र को अपने पिता और गांव को लेकर काफी गर्व था। एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने गांव, बचपन और पिता के बारे में बताया था। धर्मेंद्र ने बताया कि उनके पिता जी उनके पढ़ाई नहीं करने और दिनभर खेलते रहने को लेकर नाराज रहते थे और एक दिन गुस्से में उनसे कहा कि पढ़ाई नहीं करोगे तो तुम्हारा क्या होगा। तुम्हे अपने पिता की तरह हेडमास्टर बनना चाहिए, आवारागर्दी नहीं करनी चाहिए। पिताजी की डांट सुनने के बाद धर्मेंद्र ने उनसे कहा कि मेरा मन किताबों में नहीं लगता है, मुझे कुछ बड़ा करना है, दुनिया देखनी है। जिसके बाद धर्मेंद्र की मां ने उनके पिताजी से कहा कि बच्चे का मन है उसे कहां तक रोकेंगे। धर्मेंद्र ने किसी तरह इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की, उसके बाद उनका मन हिन्दी सिनेमा की रंगीन दुनिया में खो गया।

फिल्मों के प्रति दीवानगी और सुरैया का आकर्षण

धर्मेंद्र में फिल्मों का आकर्षक बचपन से था। 12वीं पास करने के बाद उनका ध्यान पूरी तरह फिल्मों में रच-बस गया। उन्होंने 1949 में अभिनेत्री सुरैया की फिल्म दिल्लगी एक बार देखी। उसके बाद उन्हें सुरैया इतनी अच्छी लगीं कि उन्होंने ये फिल्म 40 बार देख ली। वो अक्सर दोस्तों से कहते थे कि एक दिन मैं भी मुंबई जाऊंगा और बड़ा हीरो बनूंगा। धर्मेंद की पहली पत्नी प्रकाश कौर से उनकी जल्दी ही शादी हो गई थी। उसके बाद वो दिल में हीरो बनने का सपना लेकर मुंबई की तरफ चल पड़े। धर्मेंद्र ने बताया कि जब वो अपने गांव से मुंबई जा रहे थे उस वक्त उनकी जेब में सिर्फ 51 रुपये थे और आंखों में अनगिनत सपने थे।

जब गलियों की खाक छानी

मुंबई फिल्म नगरी जितना आकर्षक लगती है, उतनी बेरहम भी है। हीरो बनने का सपना लेकर मुंबई पहुंचे धर्मेंद्र का इस सच्चाई से जल्दी ही सामना हो गया। उन्होंने माया नगरी की गलियों, फुटपाथ और दफ्तरों के चक्कर काटने शुरू किए। धर्मेंद्र दिन भर स्टूडियो-दर स्टूडियो भटकते रहते और रात में भूखे पेट फुटपाथ पर सो जाते थे। इसी दौरान उन्हें मुंबई में एक टैलेंट हंट प्रतियोगिता का पता चला और इसी प्रतियोगिता से उनकी किस्मत बदलने वाली थी।

दिल भी तेरा हम भी तेरे नाम से ब्रेक

धर्मेंद्र को शुरुआती संघर्ष करने पड़े लेकिन उन्हें हिन्दी फिल्मों के लिए आयोजित की जाने वाली टैलेंट हंट प्रतियोगिता में कुछ फिल्म निर्माताओं से मुलाकात हुई। साल 1960 में उन्हें पहली बार फिल्मों में ब्रेक मिला। दिल भी तेरा हम भी तेरे नाम की फिल्म में धर्मेंद्र को पहली बार काम करने का मौका मिला। इस फिल्म में ब्रेक देने वाले निर्देशक ने कहा था कि तुम्हारा लुक और तुम्हारी आंखों का भोलापन, ये सब काम करेगा। फिल्म का नाम है दिल भी तेरा हम भी तेरे और तुम इसके हीरो हो धरम सिंह।

धरम सिंह देओल की जगह धर्मेंद्र

1958 में फिल्मफेयर के न्यू टैलेंट हंट का एक साधारण अखबारी विज्ञापन सब बदल गया। 1960 में दिल भी तेरा हम भी तेरे से डेब्यू भले साधारण रहा, 1961 में 'शोला और शबनम' से चिंगारी भड़की, अनपढ़ (1962) और बंदिनी (1963) ने उनके करियर में जादुई काम किया। पंजाब के एक छोटे से गांव के रहने वाले सीधे सादे लड़के को बॉलीवुड इंडस्ट्री में एंट्री मिली और इसके साथ ही इनका नाम धरम सिंह देओल की जगह धर्मेंद्र पड़ गया।

रोमांटिक दौर में चमके

1960 का दशक धर्मेंद्र का रोमांटिक दौर था। मैटिनी आइडल बने. फूल और पत्थर (1966) में हैंडसम हीरो। आई मिलन की बेला (1964) और हकीकत (1964) में दिल छू लेने वाले किरदार ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा साबित की। ममता (1966) में रोमांस से लेकर इज्जत (1968) में डबल रोल तक। दशक के अंत में सत्यकाम (1969) ने आलोचकों की वाहवाही बटोरी, साबित किया कि वो सिर्फ मसल्स नहीं, गहराई वाले एक्टर हैं।

एक्शन में बने दमदार अभिनेता

बॉलीवुड हमेशा बदलता रहता है। उसने उनसे एक्शन की मांग की। 1970 का दशक शुरू हुआ और धर्मेंद्र बन गए एक्शन किंग। मेरा गांव मेरा देश (1971) ने उन्हें रफ-टफ बागी बना दिया, एक और फिल्मफेयर नॉमिनेशन। फिर आया स्वर्ण युग, सीता और गीता (1972), हेमा मालिनी की डबल रोल वाली धमाकेदार हिट; यादों की बारात (1973), सलीम-जावेद की पहली 'मसाला' ब्लॉकबस्टर; जुगनू (1973), एक और चार्टबस्टर। लेकिन कोई भी फिल्म शोले (1975) को मात नहीं दे सकी। वीरू के रूप में, अमिताभ बच्चन के जय के साथ हंसते-मजाक करते धर्मेंद्र ने डायलॉग दिए जो पीढ़ियों तक गूंजते हैं। उस वक्त भारत की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म, कुछ थिएटर्स में पांच साल तक चली।

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