Kolkata Rape Case : मृतक की ‘रिसर्च’ जबरन दी गई थी किसी और को? | Sanmarg

Kolkata Rape Case : मृतक की ‘रिसर्च’ जबरन दी गई थी किसी और को?

सीबीआई ने की सहकर्मी डॉक्टरों से पूछताछ जांच में जुटी सीबीआई
थीसिस काफी हद तक कम्पलीट हो गया था मृत डॉक्टर का

कोलकाता : आर जी कर मामले की जांच की जिम्मेदारी मिलने के बाद सीबीआई अधिकारियों ने मृतक महिला डॉक्टर के माता-पिता से कई बार बातचीत की। उनसे बार-बार यह पूछा गया कि क्या वे किसी पर संदेह करते हैं। इस मामले में नयी नयी कहानी सामने आ रही है । आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मृत डॉक्टर-छात्रा की इस अधूरी शोध-पत्रिका को सीबीआई की जांच के एक प्रमुख विषय के रूप में देखा जा रहा है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसी ने पूछताछ शुरू की है। अधिकारियों ने मृतक के माता-पिता से कई बार बात की, जहां उनसे यह सवाल पूछा गया कि क्या वे किसी पर शक करते हैं। सूत्रों के अनुसार, सीबीआई को परिवार की ओर से इस शोध पत्र के बारे में जानकारी दी गई थी। मृतक के माता-पिता का आरोप है कि उनकी बेटी की थीसिस जबरन किसी और को दी गई थी। मृत डॉक्टर के पिता ने कहा, “कई लोगों ने हमसे पूछा कि क्या हमें कोई संदिग्ध बात नजर आई। बेटी ने हमें कोई बात बताई थी। बेटी ने कहा था कि उसकी थीसिस किसी और को दे दी गई है, और उसे फिर से एक नई थीसिस बनाने को कहा गया था। पहले हमें यह गंभीर नहीं लगा, क्योंकि बेटी पढ़ाई में इतनी अच्छी थी कि नया पेपर लिखना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन अब हमें शक हो रहा है कि यह सब क्यों किया गया? क्या बेटी किसी साजिश का शिकार हो गई?”सीबीआई ने मृतक के दो सहपाठियों और एक खास दोस्त से बात करके इस बारे में जानकारी जुटाने की कोशिश की। आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज के पोस्टग्रेजुएट की दूसरी वर्ष की एक छात्रा ने कहा, “सीबीआई ने इस बारे में मुझसे भी पूछा। मैंने बताया कि पूरे मामले में कई अनियमितताएं दिख रही थीं। उनमें से एक यही शोध पत्र है।” उन्होंने बताया कि स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान उन्हें एक शोध पत्र लिखना होता है, जिसे अंतिम वर्ष की परीक्षा से पहले जमा करना जरूरी होता है। विशेषज्ञ चिकित्सक बनने के लिए यह शोध पत्र आवश्यक है, और इस शोध का दायरा सबसे महत्वपूर्ण मानदंड होता है, इसलिए पहले वर्ष से ही इस पर काम शुरू कर दिया जाता है। मृतक के एक अन्य सहपाठी ने कहा, “किस विषय पर शोध करना है, यह हमें सोच-समझकर लिखित रूप में देना होता है। इससे पहले इसे अस्पताल की एथिक्स कमेटी को भेजा जाता है। यह इसलिए जरूरी होता है क्योंकि मरीजों पर किए जाने वाले परीक्षणों की कई नीतियां होती हैं, जिनका पालन करना होता है।

किस तरह की दवाइयां प्रयोग की जाएंगी, यह सब एथिक्स कमेटी को बताया जाता है। इस समिति से मंजूरी मिलने के बाद, शोध पत्र का सारांश स्वास्थ्य विश्वविद्यालय को भेजा जाता है। वहां से अनुमति मिलते ही विस्तृत कार्य शुरू होता है।” सूत्रों के अनुसार, मृत डॉक्टर इन सभी चरणों को पार कर चुकी थीं। सहपाठी और एक दोस्त के अनुसार, “दूसरे वर्ष के मध्य तक उसका शोध काफी हद तक पूरा हो गया था। इसी बीच अचानक उसे बुलाकर कहा गया, ‘तू एक नया शोध पत्र बना ले, यह अच्छा विषय है, इसे हम किसी और को दे रहे हैं।’ स्वाभाविक रूप से वह टूट गई थी।” उन्होंने कहा, “कई बार वरिष्ठों के बीच शोध पत्रों में थोड़ा बदलाव कर काम चलता रहता है, लेकिन किसी की मौलिक सोच को जबरन किसी और को दे देने का ऐसा मामला हमने पहले नहीं देखा।” ऐसा क्यों किया गया? किसके आदेश पर? क्या इसके बाद उस युवा डॉक्टर ने कोई कदम उठाया? क्या यही कारण था कि उन्हें इस नतीजे का सामना करना पड़ा? इन सवालों का जवाब सीबीआई तलाश रही है।

 

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