गुरुपर्व पर गूंजी दो रागों की अनकही कथा

जब नानक-तेग बहादुर की वाणी से महका कोलकाता
गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ (पुरानी पेंटिंग)
गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ (पुरानी पेंटिंग)
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कोलकाता: महानगर के प्राचीनतम इलाकों में से एक बड़ाबाजार की संकरी गलियों में स्थित गुरुद्वारा बड़ा सिख संगत इन दिनों श्रद्धा, इतिहास और संगीत के संगम का केंद्र बना हुआ है। गुरुपर्व के पावन अवसर पर जब भोर की अरदास के साथ हारमोनियम, तानपुरा और रबाब की स्वर-लहरियाँ गूंजीं, तो लगा मानो समय पाँच शताब्दियाँ पीछे लौट आया हैं। तब श्री गुरु नानक देव जी ने इसी स्थान पर अपने उपदेशों से मानवता को नयी दिशा दी थी।

इतिहास साक्षी है कि सन् 1510 में अपने पूर्व भारत प्रवास के दौरान गुरु नानक देव जी ने इस स्थान पर बारह दिनों तक प्रवास किया था। उस समय क्षेत्र में महामारी फैली हुई थी। गुरु जी ने अपने उपदेश, सेवा और करुणा से लोगों के मन में भय की जगह विश्वास और प्रेम का संचार किया। यहीं उन्होंने राग वसंत में वाणी दी —“चंचल चित न पावै परा...” यह पंक्ति जीवन में स्थिरता, संयम और भक्ति की साधना का प्रतीक है। वसंत राग की तरह यह संदेश भी आत्मा में नवजीवन का संचार करता है।

इतिहास यह भी बताता हैं कि सदियों बाद, सन् 1668 में गुरु तेग बहादुर जी असम से लौटते समय इसी स्थान पर ठहरे। इसी जगह पर उन्होंने राग बिहाग में दिव्य वाणी दी — “हरि की गति नहि कोई जाणै।” उनकी यह वाणी ईश्वर की अनंत सत्ता और मानवीय सीमाओं की स्मृति कराती है। बिहाग राग की मधुर ध्वनि इस विचार को और गहराई देती है, मानो हर स्वर में आत्मा ईश्वर से संवाद करती हो।

गुरुपर्व की रात जब दोनों रागों की तानें गुरुद्वारे की संगत में गूंजती हैं, तो श्रद्धालु उस आध्यात्मिक ऊर्जा से भर उठते हैं जिसने इस स्थल को सदियों पहले पवित्र किया था। बड़ा सिख संगत न केवल धार्मिक श्रद्धा का केंद्र है, बल्कि कोलकाता की सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रतीक भी है। यहां आज भी हर धर्म, जाति और भाषा के लोग एक साथ सिर झुकाते हैं। जब अंतिम कीर्तन के साथ स्वर थमते हैं, तो सन्नाटे में बस यही गूंज रह जाती है — “एक ओंकार सतनाम, करता पुरख...” और इस गूंज में नानक की करुणा, तेग बहादुर की त्याग भावना और मानवता का शाश्वत संदेश एक हो जाता है।

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