
कोलकाता: राज्य सरकार ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में एक महत्वपूर्ण आवेदन दाखिल कर बकाया महंगाई भत्ते (डीए) की 25 प्रतिशत राशि भुगतान के लिए छह महीने अतिरिक्त समय कि मांग करने के साथ साथ राशि सीधे कर्मचारियों को देने के बजाय सर्वोच्च अदालत में जमा कराने की भी पेशकश की है। इस निर्णय को लेकर अब राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में चर्चा तेज हो गई है। राज्य सचिवालय नवान्न के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, सरकार का तर्क है कि यदि अंतिम फैसला राज्य के पक्ष में आता है, तो लाखों कर्मचारियों को दी गई राशि वापस लेना व्यावहारिक रूप से असंभव होगा। वहीं अगर फैसला कर्मचारियों के पक्ष में जाता है, तो कोर्ट जमा की गई राशि को सीधे वितरित कर सकता है। फिलहाल यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है और राज्य के कर्मचारी बेसब्री से फैसले का इंतजार कर रहे हैं।
राज्य सरकार के मुख्य तर्क इस प्रकार हैं
सरकार का कहना है कि राज्य वर्तमान में गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा है। अप्रैल 2008 से दिसंबर 2019 तक के डीए की बकाया राशि का भुगतान राज्य के लिए भारी वित्तीय बोझ साबित हो सकता है। इसके लिए केंद्र से अतिरिक्त ऋण की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही राज्य सरकार मानती है कि डीए कोई कानूनी बाध्यता नहीं। सरकार का मानना है कि महंगाई भत्ता देना नियोक्ता की मर्जी पर निर्भर करता है। यह कोई कानूनी दायित्व नहीं है और इसे राज्य की वित्तीय स्थिति के अनुरूप ही तय किया जाना चाहिए। राज्य ने डीए को अखिल भारतीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (एआईसीपीआई) से जोड़ने का विरोध करते हुए कहा कि यह संघीय ढांचे के विरुद्ध है। हर राज्य की आर्थिक स्थिति अलग होती है। इसके साथ राज्य सरकार के अनुसार, छठे वेतन आयोग की सिफारिशें कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, बल्कि इन्हें लागू करना राज्यों की वित्तीय क्षमता पर निर्भर करता है। राज्य सरकार का मानना है कि केंद्र जैसी डीए की दरें राज्य के लिए बाध्यकारी नहीं है। राज्य ने यह भी तर्क दिया है कि उसे केंद्र सरकार के डीए मानकों का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह मामला राज्य के लाखों कर्मचारियों और सरकारी खजाने, दोनों के लिए निर्णायक है। अब सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं।