

नरेश कौशिक, पीटीआई-भाषा
वाराणसीः ‘‘लोगों ने बनारस को बर्बाद कर दिया है। ये मॉल और कॉलोनियों का मुहल्ला नहीं था। ये गलियों और मुहल्लों का मोहल्ला था। पहले लोग बनारस की परंपरा को देखने के लिए आते थे, अब लोग आरती के लिए आते हैं। बनारस के चरित्र को नष्ट किया जा रहा है।’’
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित और ‘काशी का अस्सी’ जैसा बहुचर्चित और बहुविवादित उपन्यास लिखने वाले काशीनाथ सिंह ने एक मुलाकात में शहर के बदलते रूप रंग को लेकर कुछ इस तरह से अपना दर्द बयां किया।
‘भाषा’ के साथ यहां ब्रिज एन्क्लेव में स्थित अपने आवास पर एक विशेष बातचीत में उन्होंने शहर को लेकर पुरानी यादों के पन्नों को पलटते हुए कहा, ‘‘ 1953 में जब हम आए थे तो इस शहर में कार एक दो थीं... इक्के थे। प्रेमंचद, जयशंकर प्रसाद इक्के से आते जाते थे। लेकिन अब तो कारें हैं, मल्टी प्लेक्सेस बने हुए हैं। अब बनारस में, दिल्ली या किसी बड़े शहर में कोई फर्क नहीं रह गया है।’’
अस्सी को अब चौपाटी बना दिया
एक जनवरी 1937 को जियापुर, चंदौली में जन्में काशीनाथ का बनारस से लगाव जगजाहिर है। और इसी कारण शहर के आधुनिकता की चपेट में आने से वह खासे दुखी भी हैं। उन्होंने कहा,‘‘ पहले लोग बनारस की परंपरा को देखने के लिए आते थे, अब लोग आरती के लिए आते हैं। नमो घाट, अस्सी घाट... वहां शाम को हम दस-पांच लोग घाटों की सीढ़ियों पर बैठते थे, सन्नाटा रहता था, शांत, गंगा बहती रहती थी। आपस में बातें करते थे, टहलते थे। नहाने वाले शाम को दो-चार लोग होते थे। और यहां एकदम शांति होती थी। साधु बैठे हुए हैं, जटा जूट बढ़ाए, ध्यान कर रहे हैं, योगी धुनी रमाए, पूरे बदन में राख लपेटे बैठे हैं, अब तो एक तमाशा हो गया है। अस्सी को अब चौपाटी बना दिया गया है। ये बनारस नहीं था... ये हमारा बनारस नहीं है। वो हमारा बनारस था।’’
बनारस का चरित्र गलियां हैं
उनका परिवार बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में मकान मिलने से पहले अस्सी घाट के समीप ही रहता था। बातों के क्रम में चाय की चुस्कियां लेते हुए काशीनाथ सिंह लौट लौट कर बनारस पर ही टिकते रहे और शहर से उनके गर्माहट भरे रिश्ते की परतें खुलती रहीं। उन्होंने बड़े संजीदा लहजे और थोड़ा अफसोस के साथ कहा,‘‘ बनारस का एक चरित्र हुआ करता था। दाल मंडी की गलियां और वहां की दुकानें प्रसिद्ध थीं। ठठेरी गली थी, बिस्मिल्लाह खान की गली थी, कुंजी टोला था... अब गलियां सड़कों में बदली जा रही हैं।’’
यादों को मिटाया जा रहा
वाराणसी के सबसे पुराने इलाके और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की रिहायश वाले दाल मंडी इलाके में सड़क को चौड़ा करने के लिए चलाए जा रहे ध्वस्तीकरण अभियान को लेकर उनके दिल में आक्रोश है। उनका कहना था,‘‘संस्कृति में बनारस का बहुत दखल है। यहां गायन, वादन, तबला वादन, कत्थक का घराना था। सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज और अनोखे लाल जैसी हस्तियां इस शहर में हुई हैं। बिस्मिल्लाह खां यहां हुए। दाल मंडी में उनका भी घर गिराया जा रहा होगा। मंडी में हमारा भी घर तोड़ा जा रहा है। इस सरकार को संस्कृति, संगीत, साहित्य से कोई मतलब ही नहीं है।’’
बनारस के पुरानेपर को नष्ट किया जा रहा
उनका कहना था कि बनारस की हद गंगा के इधर और उधर तक थी। उन्होंने कहा कि बनारस के पुरानेपन को नष्ट किया जा रहा है जिसे देखने के लिए विदेशी यहां आते थे, शांति की तलाश में आते थे, कोलाहल से भरे जीवन से ऊब कर यहां आते थे। 89 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह ने साहित्य अकादमी द्वारा पिछले दिनों पुरस्कारों की घोषणा के लिए प्रस्तावित संवाददाता सम्मेलन को रद्द किए जाने की पृष्ठभूमि में कहा, ‘‘देखिए, साहित्य से कोई लेना देना है नहीं सरकार का। साहित्य इसके लिए अनावश्यक चीज है। अप्रासंगिक ही नहीं अनावश्यक है।’’
सरकार साहित्य को गंभीरता से नहीं लेती
2011 में उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लंबे समय तक साहित्य के प्रोफेसर रहे काशीनाथ सिंह ने कहा, ‘‘किताबें छप रही हैं, खूब बिक भी रही हैं। पहले की तुलना में पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। फेसबुक वाट्सअप पर लिखा भी बहुत जा रहा है। सत्ता विरोधी भी काफी कुछ लिखा जा रहा है लेकिन सरकार उसे गंभीरता से लेती ही नहीं है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘ पुरस्कार तो रद्द होना ही था। पहले अकादमी का चुनाव हुआ करता था। लोग चुने जाते थे। इसका चुनाव अब होता नहीं।’’ अंत में उन्होंने अपनी किताब ‘काशी का अस्सी’ के पन्ने पलटते हुए कुछ पढ़ा...
‘‘ये जग बना है लकड़ी का, जीते लकड़ी, मरते लकड़ी, देख तमाशा लकड़ी का।’’