सिडनी : पृथ्वी का ऊर्जा संतुलन अब पूरी तरह से असंतुलित हो चुका है। पिछले 20 साल में यह असंतुलन दोगुने से भी अधिक हो गया है। आने वाले वर्षों में जलवायु परिवर्तन में तेजी आ सकती है। इससे भी बुरी बात यह है कि यह चिंताजनक असंतुलन तब भी उभर रहा है जब अमेरिका में वित्तपोषण की अनिश्चितता गर्मी के प्रवाह पर नजर रखने की हमारी क्षमता को खतरे में डाल रही है।
हाल के वर्षों में असंतुलन लगभग 1.3 वाट प्रति वर्ग मीटर हुआ
जलवायु परिवर्तन पर गंभीरता से नजर रख रहे विश्व के कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों के विज्ञानियों ने हालिया शोध में पाया है कि यह ऊर्जा असंतुलन अब जलवायु मॉडल द्वारा सुझाये गये असंतुलन से कहीं अधिक है। यह मापना कि पृथ्वी के वायुमंडल में कितनी गर्मी प्रवेश करती है और कितनी गर्मी बाहर निकलती है, को ही पृथ्वी का ऊर्जा संतुलन कहा जाता है और यह अब पूरी तरह से असंतुलित हो चुका है। वर्ष 2000 के दशक के मध्य में ऊर्जा असंतुलन औसतन 0.6 वाट प्रति वर्ग मीटर था जबकि हाल के वर्षों में यह औसतत लगभग 1.3 वाट प्रति वर्ग मीटर दर्ज किया गया। इसका मतलब है कि पृथ्वी की सतह के पास ऊर्जा के संचय की दर दोगुनी हो गयी है।
ग्रीनहाउस गैसें रोक रहीं बाहर जाने वाली ऊर्जा
पृथ्वी की ऊर्जा संतुलन प्रणाली बैंक खाते की समझा जा सकता है। अगर खर्च कम होता है तो खाते में जमा पैसे बढ़ने लगते हैं। इसी तरह पृथ्वी पर जितनी ऊर्जा सूरज मिलती है, उतनी ही ऊर्जा वापस अंतरिक्ष में चली जाती है, पृथ्वी पर जीवन इस संतुलन पर निर्भर करता है। लेकिन जब अंदर आने वाली ऊर्जा बाहर जाने वाली ऊर्जा से अधिक हो जाती है, तो पृथ्वी पर गर्मी ‘जमा’ होने लगती है, जिससे वैश्विक तापमान वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) होती है। सौर ऊर्जा पृथ्वी से टकराती है और इसे गर्म करती है।
वायुमंडल में दो ट्रिलियन टन से ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें
वायुमंडल में मौजूद ऊष्मा को रोकने वाली ग्रीनहाउस गैस इस ऊर्जा का कुछ हिस्सा रोक कर रखती हैं लेकिन कोयले, तेल और गैस के जलने से अब वायुमंडल में दो ट्रिलियन टन से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसें जुड़ गयी हैं। ये ज्यादा से ज्यादा ऊष्मा को रोकती हैं और इसे बाहर जाने से रोकती हैं। इस अतिरिक्त ऊष्मा का कुछ हिस्सा जमीन को गर्म कर रहा है या समुद्री बर्फ, ग्लेशियर और बर्फ की चादरों को पिघला रहा है लेकिन यह बहुत छोटा अंश है। पूरी 90 प्रतिशत ऊष्मा महासागरों में चली गयी है क्योंकि उनकी ऊष्मा क्षमता बहुत ज्यादा है।
बढ़ेंगी प्राकृतिक आपदाएं!
इन निष्कर्षों से पता चलता है कि हाल के वर्षों में पड़े अत्यधिक गर्म साल कोई अपवाद नहीं हैं बल्कि वे आने वाले दशक या उससे भी लंबे समय तक गर्मी के बढ़ते प्रभाव को दर्शा सकते हैं। इसका मतलब होगा कि भयंकर लू (हीटवेव), सूखा और अत्यधिक वर्षा जैसी जलवायु आपदाएं जमीन पर और भी ज्यादा गंभीर होंगी। साथ ही समुद्रों में तेज और लंबे समय तक चलने वाली समुद्री हीटवेव भी और ज्यादा तीव्र हो सकती हैं।