ईटानगर/गुवाहाटी : अरुणाचल प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य तापिर गाओ ने दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की चीन की घोषणा पर मंगलवार को चिंता जताते हुए दावा किया है कि यह बांध ‘जल बम’ के समान होगा, जो पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश जैसे निचले क्षेत्रों में जल प्रलय ला सकता है।
चीन ने पहले ही ले चुका बांध बनाने का फैसला
गाओ ने गुवाहाटी में ‘उप-हिमालयी क्षेत्र में जल सुरक्षा, पारिस्थितिकी अखंडता और आपदा तन्यकता सुनिश्चित करना: ब्रह्मपुत्र का मामला’ विषय पर गुवाहाटी में आयोजित सम्मेलन में यह टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि चीन ने पहले ही एक बांध बनाने का फैसला कर लिया है, जो 60,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करने में सक्षम होगा।
बांध नहीं बल्कि एक ‘जल बम’ होगा
यह कोई बांध नहीं, बल्कि एक ‘जल बम’ होगा, जिसका इस्तेमाल भारत और अन्य निचले तटवर्ती देशों के खिलाफ किया जायेगा। गाओ ने दावा किया कि जून 2000 में आई विनाशकारी बाढ़ भी इसी तरह के ‘जल बम’ का नतीजा थी, जिसमें सियांग नदी पर बने 10 से अधिक पुल बह गये थे। अरुणाचल प्रदेश में यारलुंग त्सांगपो को सियांग नदी के नाम से जाना जाता है, जो असम में प्रवेश करने के बाद ब्रह्मपुत्र के रूप में जानी जाती है।
सियांग नदी पर एक और बांध बनाने के प्रस्ताव का समर्थन
अरुणाचल पूर्व लोकसभा क्षेत्र से भाजपा सांसद गाओ ने कहा कि अगर चीन भविष्य में बांध से पानी छोड़ने का फैसला करता है तो अरुणाचल प्रदेश, असम, बांग्लादेश और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देश तबाह हो जायेंगे। उन्होंने कहा कि वे अरुणाचल में सियांग नदी पर एक और बांध बनाने के प्रस्ताव का समर्थन करते हैं ताकि (चीन के) प्रस्तावित बांध से अचानक पानी छोड़े जाने की सूरत में निचले इलाकों में आने वाली आपदा को रोका जा सके।
परियोजना के बारे में चिंताएं जायज
गाओ ने कहा कि इस परियोजना के बारे में चिंताएं जायज हैं क्योंकि बांध के कारण तिब्बत से पानी का प्रवाह बाधित हो सकता है, जिससे निचले इलाकों में अचानक बाढ़ आने या जल स्तर कम होने का खतरा पैदा हो सकता है। उन्होंने कहा कि इससे भारत में, खासकर अरुणाचल प्रदेश और असम के साथ-साथ बांग्लादेश में खेती-किसानी तथा जल आपूर्ति पर सीधा असर पड़ेगा और इस महत्वपूर्ण संसाधन (पानी) के लिए चीन पर निर्भरता बढ़ेगी।
बांध के निर्माण स्थल को लेकर चिंता
गाओ के अनुसार भारत सरकार चीन से कूटनीतिक रूप से इस मुद्दे पर बात करने की कोशिश कर रही है ताकि मामले को सुलझाया जा सके। चीन ने पिछले साल 25 दिसंबर को तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो नदी पर 137 अरब अमेरिकी डॉलर की अनुमानित लागत से दुनिया के सबसे बड़े बांध के निर्माण को मंजूरी दी थी। बांध का निर्माण उस जगह पर किया जाना है, जहां यारलुंग त्सांगपो नदी चीन की मेडोग काउंटी की तरफ मुड़ती है और फिर अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है।
1950 के दशक के अंत में तिब्बती क्षेत्र में चीनी आक्रमण बड़ी नदियों पर लक्षित था
थाइलैंड में रहने वाले स्वीडिश पत्रकार एवं लेखक बर्टिल लिंटर ने सम्मेलन में इस बात पर प्रकाश डाला कि 1950 के दशक के अंत में तिब्बती क्षेत्र में चीनी आक्रमण खास तौर पर उन असंख्य बड़ी नदियों पर लक्षित था, जिनका उद्गम तिब्बती पठार से होता है। लिंटर एशिया की राजनीति और इतिहास की गहरी समझ रखते हैं। उन्होंने कहा कि चीन ने अकेले मेकांग नदी पर 11 बड़े बांध बनाए हैं, जो पांच अन्य देशों के लिए जीवनरेखा है। लिंटर ने इस बात पर जोर दिया कि भारत को चीन के साथ जल-बंटवारा समझौता करना चाहिए। उन्होंने आशंका जताई कि समझौते के अभाव में दोनों पड़ोसी देशों के बीच ‘द्विपक्षीय संघर्ष’ हो सकता है।
बांध बनाकर न सिर्फ एक महाशक्ति बनना चाहता है चीन
सम्मेलन को वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से संबोधित करने वाले लेखक-पत्रकार क्लॉड अर्पी ने कहा कि चीन अपनी मेडोग काउंटी में बांध बनाकर न सिर्फ एक महाशक्ति बनना चाहता है, बल्कि उसकी कई सुरंगों के जरिये यारलुंग त्सांगपो नदी के पानी को पीली नदी की तरफ मोड़ने की भी योजना है। ब्रह्मपुत्र बोर्ड के अध्यक्ष डॉ रणबीर सिंह ने इस बात को रेखांकित किया कि ब्रह्मपुत्र घाटी भारत में एकमात्र जल-अतिरिक्त नदी घाटी है जबकि बाकी घाटियों में पानी की कमी है।
भविष्य में ब्रह्मपुत्र घाटी में भी पानी की कमी हो जायेगी
उन्होंने कहा कि चीन में इस बांध के निर्माण के साथ क्या भविष्य में ब्रह्मपुत्र घाटी में भी पानी की कमी हो जायेगी या फिर अन्य विनाशकारी परिणाम सामने आयेंगे, जिनका उचित वैज्ञानिक अध्ययन के जरिये समाधान निकाला जाना बेहद जरूरी है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गुवाहाटी की प्रोफेसर अनामिका बरुआ ने कहा कि चीन की ओर से सूचना का अभाव और पारदर्शिता की कमी है। उन्होंने दावा किया कि पड़ोसी देश जानकारी साझा नहीं कर रहा है। बरुआ ने यह भी कहा कि हमारे पास दुनिया के सबसे बड़े बांध से निचले इलाकों पर पड़ने वाले वास्तविक प्रभाव को मापने के लिए पर्याप्त वैज्ञानिक डेटा या उपकरण भी नहीं हैं। सम्मेलन का आयोजन थिंकटैंक ‘एशियन कॉन्फ्लुएंस’ ने किया। इसमें वियतनाम, नेपाल और भूटान के विशेषज्ञ भी शामिल हुए।