जब ब्रह्माजी को मेंढक बनना पड़ा

जब ब्रह्माजी को मेंढक बनना पड़ा
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एक बार स्वर्गलोक में ब्रह्माजी द्वारा सुख-दुःख के बंटवारे पर तीनों देवताओं की आपस में बहस छिड़ गयी। हुआ यूं कि ब्रह्माजी एक-एक करके सुख-दुःख का मनुष्यों में बंटवारा कर रहे थे। किसी मनुष्य के हिस्से केवल सुख,तो किसी मनुष्य के हिस्से सिर्फ दुःख ही दुःख आ रहा था।
ऐसे बंटवारे को देख अवढरदानी ने ब्रह्माजी से कहा, 'भगवन ! यह तो मनुष्यों के प्रति अन्याय हो रहा है, एक के हिस्से में जिंदगी भर का सुख, तो एक के हिस्से में जिंदगी भर दुःख ?' इस बात का समर्थन विष्णुजी ने भी किया। पर ब्रह्माजी कहां मानने वाले थे, उन्होंने कह दिया,'मेरा निर्णय अटल है। मैं नहीं बदलूंगा। '
शंकरजी ने बहुत समझाया पर ब्रह्माजी पर असर नहीं हुआ तो आक्रोश में भरकर शंकरजी बोले, 'जाइये, अब से मैं भी कुछ नहीं जानूंगा। यदि आप किसी दुखिया के पाले में पड़ जाएंगे तब आपको समझ आ जायेगी।'
एक गांव में एक जमींदार था। उसे बंटवारे में केवल सुख ही सुख मिला था, इसलिए उसके घर में अपार धन-सम्पदा थी। उसी गांव में एक ग्वाला भी रहता था, जिसको बटवारे में जीवन भर का दुःख ही मिला था। वह जमींदार के खेत में जी-तोड़ हरवारे का काम करता था। मजदूरी स्वरूप उसे एक सेर खेसारी मिलती थी, जिसे उसकी पत्नी कूट-पीसकर खाने लायक बना देती थी। ऐसी दिनचर्या से ऊबकर एक दिन खाने बैठा तो अपनी पत्नी से बोला, 'खेसारी की रोटी खाकर जी भर गया है, अब तुम ही कुछ करो कि कुछ अच्छा खाने को नसीब हो। '
ग्वाले की पत्नी थोड़ी चालाक किस्म की थी। वह खेसरी से रोज थोड़ा-थोड़ा बचाकर रखती थीं। जब ढेर सारा हो गया तो दुकान में बेच आयी और मिले पैसे से दूध,चावल,चीनी खरीदी व स्वादिष्ट खीर बनाकर पति की प्रतीक्षा करने लगी।
पति के आने पर बोली कि 'जल्दी हाथ-मुंह धो लीजिये,मैं खाना लगती हूँ,आज मैंने स्वादिष्ट खीर बनाई है।' ग्वाला यह सुनकर बहुत खुश हो गया और जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह धोकर खाने ही जा रहा था कि यह सुख पूर्वक खाना ब्रह्माजी को पसंद नहीं आया, क्योंकि उसके हिस्से में तो दुःख ही लिखे थे। ब्रह्माजी खुद ही मेंढक का रूप धरकर उसकी थाली में गिर गये। 'इतनी लंबी प्रतीक्षा और मेहनत के बाद उसे अच्छा खाना नसीब हो रहा था, पर इस नामुराद मेंढक ने सब बर्बाद कर दिया। आज मैं इसे नहीं छोडूंगा ' कहकर ग्वाले ने खाना फेंक दिया और उसकी धुनाई करने लगा। जब थक गया तो उसे बांधकर हरवा भी साथ ले गया और जब-जब मौका मिलता, उसकी अच्छी बुकाई करता। दिन भर भूखा रहा सो क्रोध में आकर मेंढक की पिटाई कर रहा था।
स्वर्गलोक में ब्रह्माजी की खोज हो रही थी। शिवजी भी मनुष्य का रूप धरकर मृत्युलोक में ब्रह्माजी को ढूंढते-ढूंढते उसी ग्वाले के पास पहुंच गये और बोले, 'भाई, इस मेंढक को क्यों बांधे हो ? इसे छोड़ दो।'
ग्वाले ने कहा, 'मैं इसे नहीं छोडूंगा, बहुत मेहनत के बाद अच्छा भोजन मिला था। इसने थाली में गिरकर सब किये कराये पर पानी फेर दिया। ' तब शंकरजी बोले, 'मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि आज के बाद तुम्हारे घर में कोई कमी नहीं रहेगी। जाकर घर में देख लो। '
ग्वाले ने विश्वास नहीं किया। उसने शंकरजी को भी मेंढक के साथ वहीं बांध दिया और घर गया। वहां झोपड़ी की जगह महल तथा धन-धान्य से भरा भण्डार देखा तो वह समझ गया कि वे शंकरजी हैं। इधर ब्रह्माजी बहुत शर्मिंदा हुए। शंकरजी मंद ही मंद मुस्कुरा रहे थे। वे बोले, 'भगवन ! उसी दिन मेरा कहना मान लेते तो ये हाल आज नहीं होता !'
ग्वाले ने उन दोनों को बन्धन मुक्त किया, फिर शंकरजी के चरणों में गिर पड़ा। शंकरजी ने अपना स्वाभाविक स्वरूप दिखाया,आशीर्वाद दिया तथा ब्रह्माजी को लेकर अंतर्ध्यान हो गये। तब से दुःख और सुख बारी-बारी से आने लगे।
प्रांशुल

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