हैमिल्टनगंज: डुआर्स की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक मानी जाने वाली हैमिल्टनगंज काली पूजा इस वर्ष अपने 109वें वर्ष में प्रवेश कर रही है, जबकि इससे जुड़ा भव्य मेला 91वें वर्ष में आयोजित किया जा रहा है। हर साल की तरह इस साल भी यह ऐतिहासिक आयोजन 21 अक्टूबर से 2 नवंबर तक धूमधाम से होने जा रहा है। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1917 में बक्सा डुआर्स टी कंपनी के यूरोपीयन साहबों ने काली पूजा की शुरुआत की थी। इसके कुछ वर्ष बाद क्षेत्र में श्रमिकों को पूजा और मनोरंजन के लिए एक मंच देने के उद्देश्य से मेले का प्रारंभ हुआ। ज्ञात होगा कि 19वीं सदी में अंग्रेजों ने जब डुआर्स तराई में चाय की खेती बसाई थी, तब झारखंड और छोटा नागपुर जैसे अलग-अलग क्षेत्र से श्रमिकों को लाया गया था। उस दौर में चाय बागानों के मजदूर पूजा के समय अपने घर लौट जाते थे और वापस नहीं आते थे, जिसके कारण श्रमिक संकट उत्पन्न हो जाता था।
श्रमिकों को क्षेत्र में रोकने तथा सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए यूरोपियन साहबों ने अलीपुरदुआर जिले के कालचीनी ब्लॉक के हैमिल्टनगंज में काली पूजा और मेले की परंपरा शुरू की। देश आजादी के बाद यह आयोजन स्थानीय लोगों को सौंप दिया गया। बरसों से हैमिल्टनगंज क्षेत्र के लोग ही यहां मां की पूजा व मेले का आयोजन करते आ रहे हैं। हैमिल्टनगंज काली पूजा का यह ऐतिहासिक मेला केवल धार्मिक आयोजन ही नहीं, बल्कि डुआर्स की सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विविधता का उत्सव है। हर साल चाय बागान क्षेत्रों, वनबस्तियों और देश के कोने-कोने से यहां लोग जुटते हैं। कश्मीर, बिहार, असम, राजस्थान सहित कई राज्यों के व्यापारी अपनी दुकानें लेकर मेले में भाग लेते हैं। झूला, सर्कस, ब्रेक डांस और पारंपरिक ग्रामीण बाजार इस मेले की शान है |
इस विषय पर हैमिल्टनगंज काली पूजा मेला कमेटी के सदस्य परिमल सरकार, अंकुर घोष और सुकुमाल घोष ने बताया कि इस वर्ष भी मेला भव्य स्तर पर आयोजित किया जा रहा है। उन्होंने कहा हर वर्ष की तरह इस बार भी झूला, सर्कस और ब्रेक डांस रहेंगे, लेकिन इस साल की खास पहचान होगी पुरुलिया का प्रसिद्ध छऊ नृत्य, जो लोगों के लिए एक अलग आकर्षण होगा।"
हैमिल्टनगंज काली पूजा कमेटी के सदस्य संजय मुखर्जी और जीवेश नस्कर ने कहा, "हमारी काली पूजा की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां आज भी पुरानी रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। पूजा में शामिल होने लोग दूर-दराज़ से अपने प्रियजनों के साथ आते हैं और कई दिन यहीं रुकते हैं।" उन्होंने कहा हमारे हैमिल्टनगंज की काली पूजा का एक अलग ऐतिहासिक महत्व है। ब्रिटिश शासन काल के दौरान चाय बागान के यूरोपियन साहबों ने मिलकर यहां पूजा की शुरुआत की थी, देश आजादी के बाद साहब तो चले गए लेकिन पूरे नियम और निष्ठा के साथ आज भी यहां हम मां की पूजा अर्चना करते हैं। पहले काठ की मंदिर और मिट्टी की प्रतिमा में मां की पूजा होती थी। बाद में यहां पक्का मंदिर तैयार कर मां की पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गई।
काली मंदिर के पुजारी अमल गांगुली ने बताया कि यहां पाठा बली नही दी जाती हैं, बल्कि परंपरागत विधि से पूजा की जाती है। इस पूजा से
स्थानीय लोगों की आस्था और भावनाएं जुड़ीं हुई हैं। हैमिल्टनगंज के स्थानीय लोगों ने बताया कि यह मेला सिर्फ बाजार नहीं बल्कि भावनाओं का उत्सव है। यह लोगों के बीच भाईचारे और एकता का प्रतीक बन चुका है। एक स्थानीय निवासी ने कहा, "मेले के दिनों में पूरी रात रौनक रहती है। नागरदोला, डिस्को, झूले, सर्कस सब कुछ यहां मिलता है। हम इस मेले का सालभर इंतज़ार करते हैं।"
इस वर्ष भी हैमिल्टनगंज काली पूजा और मेला पूरे डुआर्स में आकर्षण का केंद्र रहेगा। मां काली की आराधना और मेले की धूम एक बार फिर लोगों को जोड़ने का काम करेगी।