दशहरे के विभिन्न रूप हैं

वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद ऋतु के आगमन का सूचक भी है यह पर्व
कुल्लू दशहरा
दशहरे के विभिन्न रूप हैंvijayadashami
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विजयादशमी या दशहरा प्रतिवर्ष आश्विन क्वार शुक्ल दशमी को मनाया जाता है। यह पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद ऋतु के आगमन का सूचक है।

अनेक स्थानों पर दशहरे के कुछ दिन पूर्व से रामलीलाएं प्रारंभ हो जाती हैं और दशहरे के दिन सूर्यास्त के समय बुराई के प्रतीक रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद के पुतलों का दहन किया जाता है। इस दिन श्रीराम ने रावण को मारकर लंका विजय की थी, इसलिए इसे ’विजयादशमी‘ भी कहा जाता है। इस पर्व को भगवती के 'विजया' नाम पर भी 'विजयादशमी' कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजय' नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।

इसलिए की जाती है शमी वृक्ष की पूजा

आश्विन दशमी के दिन संध्याकाल और रात्रि के बीच का समय ‘विजयकाल’ कहलाता है, इसलिए बुराई के नाश के लिए इसी समय रावण दहन किया जाता है। इस दिन लोग अपने घरों की सफाई करके दरवाजों पर फूलों की बंदनवार सजाते हैं। रावण दहन के लिए जाते समय स्त्रियां, पुरुषों के माथे पर तिलक लगाती हैं। देवताओं के पूजन के बाद सभी एक-दूसरे को शमी की पत्तियां देकर गले मिलते हैं और आपसी प्रेम बढ़ाने एवं मंगल की कामना करते हैं।

इस दिन शमी वृक्ष का पूजन भी किया जाता है। शमी वृक्ष के बारे में यह कहा जाता है कि दुर्योधन ने जब पांडवों को जुए में हराकर बारह वर्ष बनवास और एकवर्ष अज्ञातवास की सजा सुनाई, तब अज्ञातवास के समय अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर ही छुपाया था और स्वयं वृहन्नला (किन्नर) बनकर राजा विराट के यहां दास बन गया था। अर्जुन ने शमी वृक्ष से धनुष उतारकर ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए इस दिन शमी पूजन का विधान है।

कई जगह रावण दहन के बाद लोग एक-दूसरे को शमी सोनपत्ती देकर गले मिलते हैं तथा एक दूसरे को बधाइयां देते हैं। सोनपत्ती को देने के बारे में मान्यता है कि रावण वध के बाद लंका के नए राजा विभीषण ने वहां का सारा सोना लोगों में बांट दिया था।

ऐसे हुई कुल्लू दशहरा मनाने की शुरुआत

विश्वविख्यात कुल्लू दशहरा उत्सव की शुरुआत कैसे हुई, इस विषय में एक रोचक किंवदंती प्रसिद्ध है। 16 वीं शताब्दी में, राजा जगत सिंह ने कुल्लू के समृद्ध और सुंदर राज्य पर शासन किया । शासक के रूप में, राजा को दुर्गादत्त के नाम से एक किसान के बारे में पता चला, जो जाहिर तौर पर कई सुंदर मोती रखते थे। राजा ने सोचा कि उसके पास ये क़ीमती मोती होने चाहिए, जबकि दुर्गादत्त के पास ज्ञान के मोती थे । लेकिन राजा ने अपने लालच में दुर्गादत्त को अपने मोती सौंपने या मृत्युदंड देने का आदेश दिया । राजा के हाथों अपने अपरिहार्य भाग्य को जानकर, दुर्गादत्त ने खुद को अ​अग्नि के हवाले कर दिया और राजा को शाप दिया, "जब भी तुम खाओगे, तुम्हारा चावल कीड़े के रूप में दिखाई देगा, और पानी खून के रूप में दिखाई देगा"।

जनश्रुति के अनुसार इस घटना के बाद जब भी राजा भगत सिंह भोजन करने बैठता, उन्हें अपनी थाली में कीड़े रेंगते नजर आते। राजा इस घटना से घबरा गये। उन्होंने राजगुरु कृष्णदास की शरण ली। गुरु कृष्णदास ने राजा की उसकी भूल का अहसास कराया और कहा कि अब तभी इस पाप से छुटकारा मिल सकता है जब अयोध्या से श्री रघुनाथ जी की मूर्ति यहां लाकर प्रतिष्ठित की जाए । राजा ने ऐसा ही किया । इस अवसर पर श्री रघुनाथ जी के स्वागत के लिए कुल्लू घाटी के सभी देवता नगर में पधारे । कुल्लू के ढालपुर मैदान में सभी देवताओं की एक साथ उपस्थिति एक उत्सव में बदल गई और यह उत्सव बाद में कुल्लू दशहरा के आयोजन के रूप में परिवर्तित हो गया ।

मैसूर व बस्तर का भव्य दशहरा

वैसे तो दशहरा पूरे भारत का त्योहार है, लेकिन प्रथम स्थान पर है मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा । इतिहास बताता है कि मैसूर के भव्य दशहरे का प्रारंभ विजयनगर साम्राज्य से हुआ । विजयनगर के शक्तिशाली शासक अपने अधीनस्थों को दहशरे के दिन पूरे दल-बल के साथ उपस्थित होने का आदेश देते थे और 3-4 महीने की यात्रा के बाद दूर-दराज क्षेत्रों के सभी राजा अपने साथ लगभग हजार हाथियों को संवारकर उन पर सोने का हौदा लगाकर पहुंचते थे और तब इस शानदार दल-बल के साथ मां चामुंडेश्वरी की पूजा की जाती थी तथा जुलूस निकाला जाता था ।

मैसूर में वर्तमान भव्य दशहरे की शुरुआत 1969 में वडियारों ने की । इस समय से दशहरा राजाओं का त्योहार न होकर जन-जन का त्योहार बन गया। फिलहाल हजारों हाथियों को सजाकर उन पर सोने का हौदा सजाने के बजाय सबसे आगे वाले हाथी पर सोने का हौदा सजाया जाता है, जिसका वजन 750 किलोग्राम है । इस पर ही देवी चामुंडेश्वरी की सवारी निकाली जाती है ।

बस्तर का दशहरा

दशहरे के संदर्भ में दूसरा प्रसिद्ध स्थान है बस्तर। कहा जाता है कि पुरुषोत्तम देव महाराज ने जगन्नाथपुरी जाकर भगवान की सेवा की और श्रद्धानुसार रत्न चढ़ाए। वहीं से वे रथ पति की उपाधि लेकर लौटे, तभी से दशहरा मनाने की शुरुआत हुई। बस्तर में दशहरे की तैयारी श्रावण अगस्त से ही शुरू हो जाती है। यहां दशहरे के लिए खासतौर पर लकड़ी का एक विशाल रथ बनाया जाता है। इस रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र लेकर पुजारी बैठता है। दशहरे के समय दंतेश्वरी माई की डोली जगदलपुर लायी जाती है। यहां बस्तर के निवासी और राजाओं के वंशज देवी की डोली का स्वागत करते हैं। इस अवसर पर महार जाति की कुंवारी कन्या को कांटों की सेज पर बैठाने का रिवाज है। ऐसा माना जाता है कि ‘काघन देवी’ इस कन्या पर सवार होकर दशहरा मनाने की अनुमति देती है, इसीलिए इसे-‘काघन गादी’ कहते हैं। आश्विन शुल्क त्रयोदशी को माता की विदाई होती है।

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