

सन्मार्ग संवाददाता
कोलकाता : वेदांत शान्त सागर है,भक्ति तरंगायित सागर है ,ऐसा दोनों संतों ने बताया पर सागर की भीतर की जो स्थिरता है उसका नाम योग है।योग आज मनुष्य की आवश्यकता है। यह धर्म-दर्शन नहीं।बेचैन मन को संयमित करने का नाम है योग।योग दर्शन में कहा जाता है कि वृतियों का निरोध ही योग है।योग हमें मन को बांधना सिखाता है।जब योग से मन संभलता है तो जीवन में शुभ परिवर्तन होता है।हमारे ऋषियों ने परमतत्व परमात्मा को पाने के अनेक मार्ग बताए हैं।उपासना,पूजा,मंत्र,अनुष्ठान आदि ये मार्ग हैं,जो हमारे अंत:करण को शुद्ध करते हैं और हम उस परमतत्व को पाने के लिए अग्रसर होते हैं। हमारे शोधकर्ता बताते हैं,जैसी मनुष्य की वृत्तियां होगी वैसी उसकी समझ होगी।अध्यात्म छतरी है तो जिसके भीतर धर्म पनपते हैं।
ये बातें आध्यात्मिक-सांस्कृतिक संस्था श्रीशरणम् के तत्वावधान में दिव्य संत सभा में योग विषय पर प्रवचन करते हुए परमहंस परिब्राजकाचार्य पद्म भूषण स्वामी निरंजनानंद सरस्वती महाराज ने कला मंदिर सभागार में कही। भक्ति विषय पर प्रवचन करते हुए श्रद्धेय स्वामी गिरिशानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि वेदांत शान्त समुद्र है तो भक्ति तरंगायित समुद्र।भगवान राम हो ,भगवान कृष्ण हो या आपके इष्टदेव के प्रति लगाव -अपनापन हो जाए ।इसी का नाम भक्ति है। अपने इष्ट या सद्गुरु के चरणों में बिना शरणागति हुए बिना भक्ति नहीं मिलती।प्रेम की शक्ति का नाम है भक्ति।
भक्ति को भगवान ने हमें जन्मजात दिया है।भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं,मुझे बुला लो तुम्हारे हृदय को स्वच्छ कर दूंगा।रूक्मणी के पास केवल ईमानदारी थी,बुलाने पर आए और अपना बना लिये। जब आपके बच्चे रोते हैं तब आप सब छोड़कर उसके पास जाते हैं ।यदि आप संसार के मालिक ठाकुर को पुकारोंगे तो वे अवश्य आपके पास आएंगे।इसी कलयुग नरशी मेहता को भगवान श्रीकृष्ण ने दर्शन दिया है।अपनी मान्यताएं छोड़कर भगवान, किशोरी जी और सद्गुरु के शरण में जाना चाहिए तभी ठाकुर की कृपा बनी रहेंगी।
वेदांत विषय पर प्रवचन करते हुए परमहंस डा .स्वामी मुक्तानंद महाराज ने कहा कि मनुष्य का जीवन दिव्यता को लाने के है।दिव्यता का मतलब प्रकाश।प्रकाश परमात्मा में है।परमात्मा से हमारा संबंध कैसा है?इसका प्रयास करना चाहिए।व्यक्ति क्या चाहता है?अनुसंधान करने ॠषियों ने कहा है कि सभी की इच्छा है शाश्वत(स्थायी) सुख मिले,जो व्यापक हो।सांसारिक सुख क्षणिक है।
अज्ञानता की स्थिति में सांसारिक वस्तुएं सच दिखती है पर ज्ञान की स्थिति में आत्मा-परमात्मा ही दिखता है। जगत मिथ्या(जैसा हमें प्रतीत होता है वैसा नहीं) है,ब्रह्म ही सत्य है। जीव जब अपने स्वरूप को पहचान लेता है तो वह ब्रह्म हो जाता है।इसे शाश्वत सुख (आनंद) कहते हैं। हमारे शास्त्र बताते हैं कि ब्रह्म को पाने के लिए गुरु के शरण में जाना चाहिए। जीव निर्माण का साधन है सत्संग। कार्यक्रम का संचालन व संस्था का परिचय डा.ब्रजेश दीक्षित ने किया।
कार्यक्रम को सफल बनाने में ट्रस्टीगण सज्जन कुमार सिंघानिया,मुरारीलाल दीवान,अरविन्द नेवर,राम अवतार केडिया,ओमप्रकाश जाजू,राजेन्द्र बिहानी,राजू चौधरी, बिनोद माहेश्वरी, वर्षा अग्रवाल व संदीप अग्रवाल सक्रिय रहे।ट्रस्टी मुरारीलाल दीवान ने बताया कि दिव्य संत सभा 14दिसम्बर तक प्रतिदिन संध्या 5से रात 8बजे तक आयोजित की गई है।