27 जुलाई बनाम 21 फरवरी: 'भाषा आंदोलन' ने बदला अपना स्वरूप

बंगाल की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा और राजनीतिक प्रतिरोध का आह्वान
भाषा आंदोलन, सन् 1952
भाषा आंदोलन, सन् 1952
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कोलकाता: सोमवार को 'शहीद दिवस' कार्यक्रम के मंच से टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी ने जिस ‘भाषा आंदोलन’ की हुंकार भरी, वह बंगाल की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा और राजनीतिक प्रतिरोध का आह्वान था। अगले 27 जुलाई से शुरू होने वाली इस मुहिम को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह आंदोलन सन् 1952 के बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) के 'भाषा आंदोलन' जैसा है, जिसने कई युवाओं की जान ले ली थी? राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भले ही नाम से एक हो लेकिन दोनों आंदोलन एक दूसरे से संदर्भ, लक्ष्य और स्वरूप में उससे बिल्कुल भिन्न हैं।

यह सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध एक प्रतिरोध है

बांग्लादेश का 'भाषा आंदोलन' औपनिवेशिक वर्चस्व के खिलाफ एक जनविद्रोह था, जब उर्दू को एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया गया, जबकि बहुसंख्यक आबादी बांग्ला भाषी थी। इस निर्णय के खिलाफ ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने प्रदर्शन किया और 21 फरवरी 1952 को पुलिस फायरिंग में कई छात्रों की जान गई। यह आंदोलन बाद में बांग्लादेश के राष्ट्रनिर्माण की नींव बना। वहीं ममता बनर्जी का 'भाषा आंदोलन' भाजपा सरकार की ‘बंगालियों पर अत्याचार’ तथा भाषा संबंधी बाधाएँ पैदा करने के प्रयासों के खिलाफ है। यह आंदोलन भारत के संघीय ढांचे के भीतर रहकर बंगाली भाषा, साहित्य और सांस्कृतिक पहचान को बचाने की कोशिश है। ममता इसे एक राजनीतिक और भावनात्मक मुद्दे के रूप में पेश कर रही हैं, खासकर तब, जब केंद्र और राज्य के बीच टकराव चरम पर है। यह आंदोलन फिलहाल वैसा हिंसक या रक्तरंजित नहीं, अतः आदर्शों और अस्मिता की रक्षा के लिए है जैसा 1952 का आंदोलन था। ममता ने मंच से यह जरूर याद दिलाया कि भाषा की लड़ाई में वे पीछे नहीं हटेंगी। इसके साथ ही उन्होंने 21 जुलाई 1993 को पुलिस फायरिंग में मारे गए तृणमूल कार्यकर्ताओं को श्रद्धांजलि दी। इस तरह, वे अपने आंदोलन को ऐतिहासिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं। ममता बनर्जी का 'भाषा आंदोलन' भले ही खून न बहा रहा हो, लेकिन यह सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध एक प्रतिरोध है।

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