

किसी गांव में एक वृद्ध व्यक्ति रहता था। लगभग सत्त्र वर्ष की आयु पार कर चुका था। इतनी आयु हो जाने पर भी वह शरीर से स्वस्थ और चुस्त नजर आता था। वह गांव सभा का सरपंच भी था। खेती बाड़ी का काम बेटों ने संभाल रखा था। जीवन आराम से व्यतीत हो रहा था।
वह चौपाल में बैठा हुक्का गुड़ग़ुड़ाता रहता और आने जाने वालों को स्वस्थ और सुखी रहने का एक ही मंत्र बताता था जो सोलह आने सही भी था। वह कहता था- 'क्रोध ही मनुष्य के पतन का कारण है, इसलिये क्रोध मत करो। सदा प्रसन्नचित्त् करो।'
एक बार किसी गांव से कोई व्यक्ति उससे मिलने के लिये आया। उसने वृद्ध सरपंच की शांति और सादगी के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था। उस व्यक्ति के मन में वृद्ध के धैर्य को वास्तविकता को परखने का विचार मन आया।
वह उससे बोला- 'बाबा ! मुझे घर गृहस्थी और बच्चों के विषय में हमेशा चिन्ता बनी रहती है। छोटी-छोटी बातों पर बच्चों और पत्नी पर क्रोध आ जाता है। चित्त अशान्त सा रहता है। कृपा करके मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे मेरा जीवन तनावरहित हो जाये और मैं परिवार में सुखपूर्वक रह सकूं।'
वृद्ध ने हुक्के को जोर से गुड़ग़ुड़ाया, धुंआ छोड़ा और कहा- 'क्रोध ही सब व्याधियों का मूल कारण है। जीवन को तनावमुक्त रखने के लिये, कभी क्रोध मत करो और खुश रहो।'
'क्या कहा आपने ? मैं ठीक समझ नहीं पाया।' व्यक्ति ने पूछा।
'भाई क्रोध मत करो और खुश रहा करो।'
'ओह बाबा, आपकी बात मेरे कानों तक क्यों नहीं पहुंच रही।'
वृद्ध तनिक जोर से बोला- 'क्रोध मत करो और खुश रहो।'
उस व्यक्ति ने गरदन हिलाते हुए निराश स्वर में कहा- 'माफ करना जी, मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा।'
वृद्ध व्यक्ति ने अपने शब्दों को फिर दोहराया।
परन्तु बार-बार उस व्यक्ति द्वारा सुनने' की बात पर वृद्ध के धैर्य का बांध टूट गया और वह क्रोधित हो उठा। उसने आव देखा न ताव, पास रखी लठिया उठाई और उस व्यक्ति के सिर पर दे मारी। जोर से चीख कर कहा- 'हजार बार कह दिया कि क्रोध मत करो, फिर भी नहीं सुनता। निपट बहरा है तू या कानों में रूई ठूंस रखी है ?'
वह व्यक्ति हंस कर बूढ़े से बोला- 'बाबा ! पहले आप अपने क्रोध को तो मारो, तब दूसरों को शिक्षा देना। क्रोध को पीने के लिये बड़े धैर्य और सहनशीलता की आवश्यकता होती है। जब तक हम उस पर अमल नहीं करेंगे, दूसरों को उपदेश देना निरर्थक है।'
उस व्यक्ति की बात सुनकर वृद्ध का क्रोध एक दम काफूर हो गया। वह लाठी एक ओर फेंक कर लज्जित हो उठा। परशुराम संबल(उर्वशी)