नयी दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि डीएनए रिपोर्ट से केवल पितृत्व साबित होता है, सहमति का अभाव नहीं। इसी के साथ न्यायालय ने बलात्कार के जुर्म में 10 साल की जेल की सजा पाने वाले व्यक्ति को बरी कर दिया।
गर्भावस्था अकेले बलात्कार का अपराध सिद्ध करने के लिए ‘पर्याप्त नहीं’
न्यायमूर्ति अमित महाजन के पीठ ने कहा कि डीएनए रिपोर्ट से भले ही यह साबित हो गया कि महिला की कोख से जन्मे शिशु का जैविक पिता अभियुक्त ही है लेकिन गर्भावस्था अकेले बलात्कार का अपराध सिद्ध करने के लिए ‘पर्याप्त नहीं’ है, जब तक कि यह भी न साबित किया जाये कि संबंध सहमति के बिना बनाया गया था। उच्च न्यायालय ने 20 मार्च को पारित फैसले में कहा कि डीएनए रिपोर्ट केवल पितृत्व को साबित करती है-यह सहमति के अभाव को सिद्ध नहीं करती है और न ही कर सकती है। यह एक सर्वविदित कानून है कि आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 376 (बलात्कार) के तहत अपराध की सिद्धि सहमति के अभाव पर टिकी हुई है। फैसले के अनुसार घटना से जुड़ी परिस्थितियों ने अभियोजन पक्ष के मामले को ‘अत्यधिक असंभाव्य’ बना दिया है।
प्राथमिकी ‘सामाजिक दबाव का नतीजा’ हो सकती
पीठ ने फैसले में इस संभावना से भी इनकार नहीं किया कि बिना किसी स्पष्टीकरण के देरी से दर्ज की गयी प्राथमिकी ‘सामाजिक दबाव का नतीजा’ हो सकती है। पीठ ने कहा कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरोप सहमति से बने संबंध को बलात्कार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाये गये थे ताकि आरोप लगाने वाली महिला और उसके परिवार को समाज के तानों का सामना न करना पड़े। पीठ ने कहा कि मामले में संदेह का लाभ याची को मिलना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि कानून बेशक केवल चुप्पी को सहमति नहीं मानता लेकिन यह उचित संदेह से परे सुबूतों के अभाव में दोषी भी नहीं ठहराता। इस मामले में संदेह बना हुआ है, अटकलों के कारण नहीं बल्कि सुबूत के अभाव के कारण।