वैदिक विधि विधान से पूजा पाठ करके सभी शास्त्रोक्त विधियों का पालन करके प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती, तब तक भगवान का श्रीविग्रह साधारण भक्तों के लिए नहीं बन सकता। भक्तों के मन पर वैदिक कर्मकांड का प्रभाव पड़ता है। चित्त भक्ति और श्रद्धा भान से भर जाता है। हम श्री विग्रह में भगवान के दर्शन करते हैं उनके सामने नतमस्तक होते हैं। अयोध्या में श्री रामलला की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को होगी। पूरा देश राममय है सैकड़ों वर्षों के बाद शुभ मुहूर्त आया है। हमारी संवाददाता सर्जना शर्मा ने विद्वान संतों और धर्मज्ञों से इस बारे में सन्मार्ग के पाठकों के लिए विशेष रूप से विस्तृत जानकारी ली। आइए जानते हैं कैसे की जाती है प्राण प्रतिष्ठा –
भगवान की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाया जाता है। मुहूर्त से कई दिन पहले पूजा-पाठ आरंभ कर दिया जाता है। विद्वान, शास्त्रों के ज्ञाता और सनातन परंपराओं का पालन करने वाले ब्राह्मणों का पूजा और यज्ञ के लिए वरण किया जाता है। स्वामी दुर्गेशानंद चिन्मय मिशन से दीक्षित हैं और लंबे समय तक चिन्मय मिशन की सेवा में रहे। उनका कहना है कि प्राण प्रतिष्ठा दो तरह से की जाती है कृष्ण यजुर्वेदीय और शुक्ल यजुर्वेदीय। कृष्ण यजुर्वेदीय दक्षिण भारत में प्रचलित है शुक्ल यजुर्वेदीय उत्तर भारत में। रामलला की प्राण प्रतिष्ठा में दक्षिण और उत्तर भारत दोनों के विद्वान ब्राह्मण आ रहे हैं। लगभग डेढ़ महीना पहले से चारों वेदों का पाठ अयोध्या में आरंभ हो गया था। कर्नाटक से आए ब्राह्मणों ने सबसे एक सप्ताह ऋग्वेद का पाठ किया फिर यजुर्वेद , सामवेद और अंत में अथर्ववेद का पाठ किया। श्री राम जन्मभूमि परिसर में पूजा के लिए पर्ण से मंडप बनाए गए हैं। स्वामी दुर्गेशानंद बताते हैं प्राण प्रतिष्ठा पूजा तीन,पांच अथवा सात दिन की होती है। पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन चलता रहता है। जिस मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठित करने होते हैं उसकी लंबाई से बड़े बर्तन अथवा कोठे बनाए जाते हैं। मूर्ति को उसमें रख कर सबसे पहले अन्नाधिवास कराया जाता है। बर्तन अथवा कोठे को अनाज और चावल से भर दिया जाता है। रात भर रखने के बाद अगले दिन जलाधिवास कराया जाता है। पवित्र नदियों, सरोवरों के जल से बर्तन को भर दिया जाता है। इसमें भी एक दिन और एक रात रखा जाता है। तीसरे दिन फलाधिवास कराया जाता है। फलों, मिठाइयों और मेवों से भर दिया जाता है। पूजन में 108 कलश रखे जाते हैं, मंदिर के शिखर पर लगने वाले कलश और ध्वज की भी मूर्ति के साथ-साथ पूजा की जाती है। इसके बाद नगर भ्रमण कराया जाता है। उसी रात शैय्या वास कराया जाता है, प्रात: काल में विभिन्न प्रकार के अभिषेक किए जाते हैं। प्रथम चार अभिषेक भस्म, मिट्टी, गोबर एवं गोमूत्र से कराया जाता है। फिर दूध, दही, शहद और घी का अभिषेक। विभिन्न औषधियों, जड़ी-बूटियों और सुगंधित द्रव्यों से भरे 108 जल कलशों से अभिषेक किया जाता है। नवीन पोशाक पहनायी जाती है। इन सब प्रक्रियाओं में मूर्ति की आंख पर पट्टी बंधी रहती है। प्राण-प्रतिष्ठा के दिन मूर्ति को मंदिर में उनके सिंहासन पर स्थापित किया जाता है। यजमान मूर्ति की पीठ से मिलाकर अपने दोनों हाथ पीछे ले जाकर मूर्ति की आंख पर बंधी पट्टी खोलते हैं। इसके बाद यजमान भी गर्भ गृह से बाहर निकल जाते हैं। केवल प्राण प्रतिष्ठा करवाने वाले पंडित जी रह जाते हैं । मूर्ति के दर्शन कोई नहीं कर पाता, क्योंकि मूर्ति के सामने पर्दा रहता है। केवल पंडित जी अंदर होते हैं। वे मूर्ति का शृंगार करते हैं, मूर्ति को दर्पण दिखाते हैं। अयोध्या रंगमहल के पीठाधीश्वर राम आसरे जी महाराज बताते हैं, ‘जब मूर्ति को दर्पण दिखाया जाता है तो भगवान की दृष्टि पड़ते ही भगवान के तेज से दर्पण चटख जाता है। इसका अर्थ है कि मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी है। अब यह भगवान का श्रीविग्रह बन गयी है। इसके बाद यजमान से नयनोमिलन मिलन होता है जगन्नाथ पुरी में इसे नयन उत्सव कहा जाता है। यजमान भगवान के दर्शन करते हैं। फिर भगवान की षोडशोपचार पूजा की जाती है। घंटे-घड़ियाल शंखनाद के साथ भगवान की आरती और अंत में क्षमा प्रार्थना की जाती है और इस तरह भगवान अपने भक्तों के बीच आ जाते हैं, उनको दर्शन देते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। ●