Loksabha Elections 2024 : चुनावी बॉन्ड के खुलासे से भाजपा को नुकसान होगा?

Loksabha Elections 2024 : चुनावी बॉन्ड के खुलासे से भाजपा को नुकसान होगा?
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कोलकाता : क्या लाभार्थी राजनीतिक दलों के बारे में चुनावी बॉण्ड के खुलासे से भाजपा को नुकसान होगा? राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब तक हुए खुलासों से भाजपा को ज्यादा नुकसान नहीं होना चाहिए क्योंकि ज्यादातर फंड दूसरी पार्टियों को गया है। जहां भाजपा को पिछले 6 साल के दौरान 6060 करोड़ रुपये मिले, तो कांग्रेस, टीएमसी, बीआरएस, डीएमके, वाईएसआर-कांग्रेस, टीडीपी, शिवसेना और अन्य को इस दौरान भाजपा से ज्यादा पैसा मिला।

विपक्षी दलों ने सोचा कि वे चंदा प्राप्त करने के लिए ईडी, सीबीआई और आयकर तथा अन्य एजेंसियों का उपयोग करने के लिए भाजपा को कठघरे में खड़ा करने में सक्षम होंगे। लेकिन अब तक सामने आए आंकड़ों से ऐसा नहीं लगता। कई राज्यों में सत्ता में मौजूद विपक्षी दलों को भी ये चुनावी बॉण्ड खूब मिले। कांग्रेस को 1409 करोड़ रुपये, टीएमसी को 1609 करोड़ रुपये, भारत राष्ट्र समिति को 1214 करोड़ रुपये, डीएमके को 639 करोड़ रुपये, वाईआरएस कांग्रेस को 337 करोड़ रुपये, टीडीपी को 218 करोड़ रुपये, शिव सेना को 159 करोड़ रुपये और इसी तरह अन्य को भी खूब पैसे मिले। वे पैसा देने वाली इन कंपनियों पर पैसा खर्च करने के लिए दबाव बनाने के लिए एजेंसियों का उपयोग करने के लिए भाजपा को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं? इसका मतलब यह भी हो सकता है कि राज्य सरकारों ने इन कंपनियों को पैसा देने के लिए पुलिस बल का भी इस्तेमाल किया।

भारत के पूर्व वित्त सचिव और चुनावी बॉण्ड योजना के मुख्य वास्तुकारों में से एक, सुभाष चंद्र गर्ग ने कहा कि दान किसी-न-किसी रूप में जारी रहेगा। चुनावी बॉण्ड एक प्रकार की पारदर्शिता लाए थे। उन्होंने कहा, "यह फैसला हमें चुनावी बॉण्ड से पहले के अंधकार युग में वापस ले गया है।" जब तक सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर दोबारा गौर नहीं करता, कानून निर्माताओं को नई योजना विकसित करने में कठिनाई होगी। अब 20,000 रुपये से अधिक के दान की घोषणा करनी होगी और वह गुमनाम नहीं रह सकता। हालांकि, पार्टियां 20-20 हजार रुपये से कम के टुकड़ों में चंदा स्वीकार करने का सहारा लेंगी तथा सिस्टम को और अधिक भ्रष्ट करेंगी।

सीटों के लिए जमकर मोलभाव कर रहे सहयोगी दल

जब से भाजपा ने घोषणा की है कि वह 2019 के लोकसभा चुनावों में जीती सीटों से 67 सीटें अधिक यानी 370 सीटें जीतने का लक्ष्य रखेगी, सहयोगी चिंतित हैं। हालांकि एनडीए के पास 40 सहयोगी दल हैं, लेकिन भाजपा उन्हें अधिक लोकसभा सीटें देने को तैयार नहीं है। 2019 में भाजपा के सहयोगियों ने 30 लोकसभा सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने 303 सीटें जीती थीं। भाजपा का लक्ष्य 67 और सीटें बढ़ाने का है, लेकिन ऐसा लगता है कि सहयोगी दल केवल 30 सीटों के आंकड़े पर ही रहेंगे। बीजद के भी आ जाने आने से यह संख्या बढ़ भी सकती है। बिहार, पंजाब, ओडिशा और अन्य कुछ राज्यों में उम्मीदवारों की घोषणा में देरी का एक कारण लोकसभा सीटों के बंटवारे पर सहमति न हो पाना है। महाराष्ट्र में 48 में से 41-42 सीटों पर सहमति बन गई है और बाकी 5-6 सीटों पर सेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) से बातचीत चल रही है।

इसी तरह, भाजपा आलाकमान बीजू जनता दल को 21 में से कम से कम 11 सीटें छोड़ने के लिए मनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है, हालांकि उसने 2019 में केवल 8 सीटें जीती थीं। बीजद ने 12 सीटें जीती थीं। ऐसा होने की संभावना नहीं है। भाजपा ने आंध्र प्रदेश में तेदेपा-जन सेना पार्टी के साथ सीट साझा करने का समझौता किया और छह सीटों पर चुनाव लड़ेगी जिसे एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। जिस तरह से भाजपा ने हरियाणा में कार्रवाई की और जेजेपी के दुष्यंत चौटाला को बाहर का रास्ता दिखाया, वह भी इसी कारण हुआ कि चौटाला दो लोकसभा सीटें मांग रहे थे। पंजाब में भाजपा 8 लोकसभा सीटें चाहती है जबकि अकाली 7 सीटें देने को तैयार हैं। बिहार में, नीतीश कुमार अपनी जीती हुई 17 सीटों में से दो लोकसभा सीटें छोड़ने को तैयार हैं। लेकिन भाजपा 2019 में 17 की जगह 4 और यानी कुल 21 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है।

कुछ ऐसे हुआ कमलनाथ का पतन

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ गांधी परिवार के 60 वर्षों तक बेहद लाड़ले थे और उन्होंने इंदिरा गांधी के तीसरे पुत्र का दर्जा हासिल कर लिया था। कमलनाथ उन खास लोगों में थे जो दून स्कूल में राजीव तथा संजय गांधी के सहपाठी थे और छुट्टी के दिनों में पं. जवाहरलाल नेहरू के तीन मूर्ति आवास में रहा करते थे। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब दून स्कूल क्लब की तूती बोलने लगी थी। कमलनाथ संभवत: इस क्लब के अंतिम सदस्य हैं, जिन्होंने टिकट वितरण के वक्त अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मध्य प्रदेश के प्रभारी, चाहे वह जयप्रकाश अग्रवाल रहे हों या रणदीप सुरजेवाला, की नहीं सुनी और गांधी परिवार की नजरों से गिर गए। अंतत: कांग्रेस म.प्र. विधानसभा का चुनाव हार गई और राहुल गांधी ने उन्हें नतीजे आने के 24 घंटे के भीतर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया।

नाराज होकर कमलनाथ ने भाजपा में जाने की कोशिश की, मगर यह दांव उल्टा पड़ गया। कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि राहुल हमेशा कमलनाथ को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के खिलाफ रहे, लेकिन सोनिया गांधी की ही चली। यह हमेशा संदेह किया जाता रहा कि मोदी सरकार कमलनाथ के प्रति नरम रही अैर उसने पूर्व मुख्यमंत्री के बड़े पुत्र बकुल नाथ के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की।

बकुल नाथ अमेरिका में बसे भारतीय आप्रवासी (एनआरआई) हैं और उनका नाम अगुस्ता वेस्टलैंड सौदे से लाभ अर्जित करने वालों की सूची में आया था। जनवरी 2019 में जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने दुबई से राजीव सक्सेना का प्रत्यर्पण करवाया था, तब इस सौदे में बकुल नाथ का नाम सामने आया था।

सक्सेना 3000 करोड़ रु. के वीवीआईपी हेलिकॉप्टर सौदे में एक बिचौलिया था। ईडी में सक्सेना का जो बयान दर्ज है, वह एक हजार पन्नों से ज्यादा का है और सौदे में सुशेन मोहन गुप्ता, कमलनाथ के भतीजे रतुल पुरी, बेटे बकुल नाथ आदि की संलिप्तता पर रोशनी डालता है। रतुल पुरी को ईडी ने 2019 में गिरफ्तार किया था।

इस सौदे से मिली दलाली की रकम सावन्ना ट्रस्ट के स्वामित्व वाली एक कंपनी के जरिये हस्तांतरित की गई थी। इस सौदे के एक लाभार्थी बकुल नाथ पिछले 5 वर्षों से भारत नहीं आ सके हैं। कमलनाथ ने इस सौदे में किसी भी प्रकार की अनियमितता से इनकार किया था। उन्होंने इसमें अपनी भागीदारी का भी खंडन किया था। बहरहाल कमलनाथ के छोटे पुत्र अैर लोकसभा सदस्य नकुलनाथ को कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में फिर से मैदान में उतारा है, क्योंकि कांग्रेस के लिए हर सीट 'करो या मरो' की स्थिति है।

मीनाक्षी लेखी का पत्ता कैसे कटा?

भाजपा की दिग्गज नेता मीनाक्षी लेखी में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने की खूबियां नजर आती हैं। वह प्रसिद्ध अधिवक्ता पी.एन. लेखी के बेहद सम्मानित परिवार की सदस्य हैं। पी.एन. लेखी अदालतों में अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ की ओर से मुकदमे लड़े हैं एवं पार्टी में उनका बड़ा सम्मान रहा है।

मीनाक्षी लेखी पार्टी की वफादार नेता रही हैं तथा कुशल वक्ता भी हैं। पार्टी में वह तेजी से उभरीं और प्रतिष्ठापूर्ण नई दिल्ली संसदीय सीट से 2014 में भाजपा की प्रत्याशी बनीं। दिवंगत अरुण जेटली सहित भाजपा के सभी वरिष्ठ नेताओं ने उनके नाम की सिफारिश की थी और उम्मीदों पर खरी उतरते हुए मीनाक्षी ने बड़े बहुमत से चुनाव जीत भी लिया।

लोकसभा में उन्होंने अपने प्रदर्शन से अलग छाप छोड़ी और भाजपा ने 2019 के चुनाव में उन्हें फिर मौका दिया। मोदी सरकार में उन्हें विदेशी मामलों तथा संस्कृति विभाग का राज्यमंत्री भी बनाया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने वरिष्ठ सहयोगी तथा विदेश मंत्री एस. जयशंकर से उनकी नहीं पटी। वह कार्यकर्ताओं को भी घंटों प्रतीक्षा करवाने लगी थीं, सफलता शायद उन्हें पच नहीं रही थी।

पार्टी कार्यकर्ताओं ने आलाकमान से उनकी शिकायत करना शुरू कर दिया था। उनका सितारा डूबने लगा अैर वह इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा का टिकट पाने में विफल रहीं। उनकी जगह एक अन्य महिला वरिष्ठ पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की सुपुत्री बांसुरी स्वराज क्षितिज पर उभरीं, जिन्हें मीनाक्षी की जगह पार्टी ने टिकट दिया है। बांसुरी के साथ अपनी माता दिवंगत सुषमा स्वराज की विरासत भी है। मीनाक्षी लेखी अब पार्टी में अपने पुनर्वास का इंतजार कर रही हैं। वह अपनी करनी के चलते दौड़ से बाहर हो गई हैं।

सुक्खू ने अपनी ही कब्र खोदी

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में सुखविंदर सिंह सुक्खू का चयन आश्चर्यजनक था। वह इस पद की दौड़ में दूर-दूर तक नहीं थे। उन्हें राहुल गांधी तथा प्रियंका वाड्रा का करीबी माना जाता था। वह वरिष्ठ कांग्रेस नेता आनंद शर्मा के भी नजदीकी सहयोगी थे। आनंद शर्मा को हालांकि राहुल पसंद नहीं करते, मगर वह सोनिया गांधी के भरोसेमंद हैं।

जब कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में विधानसभा का चुनाव जीता, तब पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह के दावे को पछाड़ते हुए सुक्खू को मुख्यमंत्री बना दिया गया। गांधी परिवार ने हिमाचल में कांग्रेस सरकार की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अपने एक और भरोसेमंद सिपहसालार राजीव शुक्ला को राज्य का प्रभारी बनाकर भेजा।

चुनाव में चूंकि कांग्रेस ने 68 में से 40 सीटें जीत ली थीं, अत: सुक्खू और शुक्ला को लगा कि सरकार के लिए भाजपा कोई खतरा पैदा नहीं कर सकेगी। परंतु जो सोचा नहीं, वह हो गया। सुक्खू तथा शुक्ला ने कभी यह नहीं सोचा था कि उनकी ही पार्टी के 6 विधायक राज्यसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करेंगे।

जहां सुक्खू आत्ममुग्ध थे, वहीं शुक्ला भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के बोझ से दबे हुए थे। उन पर उत्तर प्रदेश तथा गांधी परिवार को संभालने का भी जिम्मा था। बेचारे सुक्खू को इन सबकी कीमत चुकानी पड़ी।

हिमाचल प्रदेश कांग्रेस को नुकसान हो सकता है क्योंकि भाजपा को जीत की गंध आ गई है। सुक्खू के दिन अब इने-गिने रह गए हैं।

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