कोलकाता : मोस्टअवेटेड फिल्म 72 हूरें सिनेमाघरों पर रिलीज हो गई है। फिल्म अपनी रिलीज से पहले ही तमाम तरह की कंट्रोवर्सी से गुजर चुकी है। सेंसर बोर्ड से विवाद, इस्लामोफोबिक फिल्म का टैग और जानें क्या-क्या। खैर फिल्म क्या वाकई में किसी धर्म को टारगेट करती है या केवल प्योर तरीके से आतंकवाद को दर्शाया गया है। जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू…
कहानी
दो ऐसे आतंकवादी जिन्होंने मुंबई स्थित गेटवे ऑफ इंडिया में होने वाले बम धमाके को अंजाम दिया है। इन्हें मरने की जल्दी है क्योंकि इनसे उनके आतंकी आकाओं ने कहा है कि शहादत देने वालों का जन्नत में बैठीं 72 हूरें स्वागत करती हैं। कहानी का ताना-बाना उनके मरने के बाद का बुना गया है। मरने के बाद जब उनका सामना सच्चाई से होता है, तो उनका दिल टूटता है। वो अपने कर्मों को याद करते हैं, मगर जब उन्हें अक्ल आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। क्या वाकई में वे इतनी मासूम लोगों को मारकर जन्नत जाते हैं? और वहां उन्हें 40 मर्दों के बराबर वाली शक्तियां मिलती हैं? सारे सवालों का जवाब जानने के लिए थिएटर की ओर रुख करें।
ऐसा है फिल्म का निर्देशन
फिल्म ‘लाहौर’ के लिए नेशनल अवॉर्ड जीत चुके संजय पूरन सिंह को ‘बहत्तर हूरों’ के लिए भी नेशनल अवॉर्ड मिल चुका है। संजय की इस फिल्म को मार्केट गिमिक के तहत जिस तरह से प्रमोट किया गया था, फिल्म स्क्रीन पर ठीक उसके विपरीत जान पड़ती है। कहानी को किसी भी तरह का सेंसेशन बनाने या बढ़ा-चढ़ाकर न दिखाने की कोशिश की वजह से ही संजय दिल जीत लेते हैं। डायरेक्टर ने इस कहानी के जरिए एक ऐसी कड़वी सच्चाई से वाकिफ करवाया है, शायद जिसे जानते हुए भी हम अनदेखा कर जाते हैं। यहां धर्म के बारे में बात कर रहे संजय ने उसकी सेंसिटिविटी का भी भरपूर ख्याल रखा है। उन्होंने कहीं से भी किसी धर्म को नीचा दिखाने की कोई कोशिश नहीं की है। संजय इस बात को बहुत ही खूबसूरती से कन्वे कर पाए कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है।
कुछ स्पाइन चिलिंग शॉट्स लेते हुए फिल्म एक बहुत गहरी बात कह जाती है, फिल्म को देखकर यही महसूस होता है कि थिएटर का कोई प्ले चल रहा है। शायद फिल्म का ट्रीटमेंट ही संजय ने कुछ इस अंदाज में रखा हो। उनकी यह फिल्म थॉट प्रोवोकिंग तो जरूर है लेकिन मसाला पसंद करने वाले दर्शकों को कितना खींच पाएगी इसमें संदेह है। दरअसल दो लोगों की बातचीत पर आधारित कहानी कई जगह थोड़ी खिंची सी लगती है। अमूमन दर्शक फिल्म एंटरटेनमेंट के लिए जाते हैं, ऐसे में इस तरह की कहानियों को थिएटर में कितना रिस्पॉन्स मिलता है, वो तो फिल्म का बिजनेस ही बता पाएगा।
टेक्निकल
फिल्म एस्थेटिकली बहुत ही खूबसूरत लगती है। सिनेमैटिकली इसपर काम बहुत डिटेल पर किया गया है। ब्लैक एंड व्हाइट कलर पैलेट पर सजी इस फिल्म के कई शॉट्स कमाल के हैं। एक होर्डिंग के पास बैठे एक्टर्स के बीच से लाल रंग के प्लेन का गुजरना, छत्रपति शिवाजी टर्निमल के शॉट्स, गेटवे ऑफ इंडिया का ड्रोन शॉट्स स्क्रीन पर खूबसूरत लगता है। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी सीन्स के इमोशन के साथ चीनी की तरह घुलते नजर आते हैं। हालांकि फिल्म का बेरंग होना इसका एक ड्रॉ बैक हो सकता है।
एक्टिंग
फिल्म की कास्टिंग परफेक्ट रही है। पवन मल्होत्रा और आमिर बशीर ने अपने किरदारों को जिया है। खासकर क्लाइमैक्स के दौरान पवन मल्होत्रा का आखिरी का वो सीन देखकर ऐसा लगता है कि उन्होंने महफिल लूट ली हो। एक आर्टिस्ट के तौर पर पवन के इस काम को याद रखा जाएगा।
क्यों देखें
अगर आपके जहन में फिल्म को लेकर यह धारणा है कि ये इस्लामोफोबिक है, तो अपनी क्लैरिटी के लिए जरूर देखें। इसके अलावा कहानी को आतंकवाद पर एक नए नजरिए से पेश किया गया है। बेहतरीन एक्टिंग और डायरेक्शन के लिए फिल्म को एक मौका दिया जा सकता है।