कोलकाता: बंगाल की हर पूजा अपने भीतर लोकजीवन और संस्कृति की अद्भुत झलक समेटे हुए है। ठीक वैसे ही जैसे दुर्गा पूजा या काली पूजा में श्रद्धा और भव्यता दिखाई देती है, वैसे ही जगद्धात्री पूजा में भी बंगाल की आस्था का अनोखा रूप देखने को मिलता है।
हुगली जिले के भद्रेश्वर के तेतुलतला बारोवारी जगद्धात्री पूजा में एक ऐसी प्रथा आज भी जीवित है, जो पूरे देश में अनोखी मिसाल पेश करती है। यहां देवी का वरण महिलाएं नहीं, बल्कि पुरुष साड़ी पहनकर और घूंघट ओढ़कर करते हैं।
स्थानीय लोगों के लिए यह देवी ‘बूढ़ी माँ’ कहलाती हैं। इस वर्ष यह पूजा 233वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। कहा जाता है कि 17वीं शताब्दी में इसका आरंभ राजा कृष्णचंद्र के दीवान दाताराम शूर ने किया था। पहले यह पारिवारिक पूजा थी, जो समय के साथ बारोवारी (सार्वजनिक) रूप में बदल गयी। तब से आज तक यह पूजा पूरे श्रद्धा और उल्लास के साथ मनायी जाती है।
इस प्रथा के पीछे एक ऐतिहासिक कथा है। ब्रिटिश काल में जब भद्रेश्वर के गौरीहाटी क्षेत्र में अंग्रेज़ और फ्रांसीसी सेनाओं की छावनी थी, तब महिलाओं का घर से बाहर निकलना असुरक्षित हो गया था। उस समय देवी के वरण की रस्म निभाने के लिए महिलाएं आगे नहीं आ सकीं। ऐसे में इलाके के पुरुषों ने ही इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर लिया।
वे विवाहित स्त्रियों की तरह साड़ी पहनकर, सिन्दूर लगाकर, शंख-चूड़ी पहनकर और घूंघट ओढ़कर देवी का वरण करने लगे। सदियों से यह परंपरा अब भी उतनी ही श्रद्धा के साथ निभायी जाती है। दशमी के दिन, जब प्रतिमा विसर्जन से पहले ‘माँ’ का वरण होता है, तो पुरुष पारंपरिक स्त्री-वेश में सजकर कनकांजलि अर्पित करते हैं।
कपाल पर सिन्दूर का टीका और वरण थाली हाथ में लिए यह दृश्य भक्तों को भाव-विभोर कर देता है। कृष्णानगर की प्रसिद्ध ‘बूढ़ी माँ’ की तरह ही भद्रेश्वर की ‘बूढ़ी माँ’भी भक्तों की गहरी आस्था का केंद्र हैं। यह पूजा पूरी तरह भक्तों के दान से चलती है, किसी प्रकार का चंदा नहीं लयिा जाता।
नवमी के दिन भोग के दर्शन के लिए हजारों श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं। भद्रेश्वर की यह पूजा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि समर्पण, समानता और लोकविश्वास का जीवंत प्रतीक है जहां भक्ति की कोई लैंगकि सीमा नहीं है। बुधवार को सीएम ममता बनर्जी ने पोस्ता से इस पूजा का वर्चुअल उद्घाटन किया।