डॉ. सुधांशु कुमार बनर्जी 
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जब 70 साल पहले कृत्रिम बारिश से पहली बार भीगा कोलकाता

इतिहास ने भुला दिया 'रेन मैन' मेघ बनर्जी को

कोलकाता: दिल्ली में नवंबर में बादलों से बारिश कराने की तीन–तीन कोशिशों पर लगभग 2 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन नतीजा—शून्य। बादलों में नमी की कमी के कारण एक बूंद भी नहीं बरसी। ऐसे समय एक पुरानी कहानी फिर चर्चा में है—जादवपुर विश्वविद्यालय की छोटी-सी प्रयोगशाला, जहाँ 1952 में एक बंगाली वैज्ञानिक ने असंभव को संभव कर दिखाया था। यह कहानी है डॉ. सुधांशु कुमार बनर्जी की, जो जादवपुर विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ मिटियोरोलॉजी एंड जियोफिज़िक्स के प्रमुख, 'मेघ बनर्जी' के नाम से प्रसिद्ध थे।

आज सोशल मीडिया उन्हें प्यार से 'बंगाल का रेन मैन' कहता है, लेकिन अपने जीवनकाल में उन्हें कभी यह सम्मान नहीं मिला। 1950 के दशक में क्लाउड सीडिंग अमेरिका की नई सनक थी—जहाँ सिल्वर आयोडाइड की मदद से महंगे हवाई अभियानों पर प्रयोग हो रहे थे। वहीं, बनर्जी और उनकी छोटी टीम के पास न विमान था, न विदेशी फंडिंग, न आधुनिक उपकरण। उनके पास था—एक छत पर बना देसी लैब, मौसम विभाग से उधार लिया हाइड्रोजन गुब्बारा, 10 किलो ड्राई आइस और खुद तैयार किए गए सोडियम-सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल।

17 अगस्त 1952 को दक्षिण कोलकाता के ऊपर हाइड्रोजन गुब्बारा छोड़ा गया। कुछ ही घंटों में बालीगंज, गरियाहाट और जादवपुर में तेज बारिश (कृत्रिम) हुई। इस प्रयोग को मानसून भर में छह बार दोहराया गया—और हर बार बारिश हुई। कई इलाकों में तो पानी भरने की शिकायतें तक आ गईं। लेकिन त्रासदी यह है कि देश ने अपने ही अग्रदूत को भुला दिया। डॉ. बनर्जी ने रिपोर्टें प्लानिंग कमीशन और मंत्रालयों को भेजीं, पर जवाब मिला—'रोचक, पर व्यापक नहीं'। न कोई फंड मिला, न राष्ट्रीय कार्यक्रम बना। 1988 में वे गुमनामी में चले गए।

आज जब दिल्ली का AQI 900 पार कर जाता है और करोड़ों रुपये विदेशी सलाहकारों पर बहाए जा रहे हैं, तब यह कहानी याद दिलाती है—नवाचार हमारे घर में था, पर हमने ही उसे भुला दिया।

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