बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय 
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वंदे मातरम् : राष्ट्रगीत की अनकही सफ़र जिसने बदली राष्ट्र चेतना

विद्रोह, आंदोलन और राष्ट्र निर्माण के भावों से भरी यात्रा

कोलकाता : संसद में हाल ही में वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में हुई बहस ने फिर याद दिलाया कि यह गीत केवल राष्ट्रगीत के रूप में एक पुकार नहीं, बल्कि एक लंबी सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक यात्रा का साक्षी भी है। दिलचस्प बात यह कि यह यात्रा जितनी महान है, इसके बारे में उतना ही कम जाना गया है।

संगीतविद-गायक देवजीत बंद्योपाध्याय बताते हैं कि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम् की रचना 1874 में की। बाद में इसे 1882 में प्रकाशित उनके उपन्यास आनंदमठ में स्थान मिला। संस्कृत और बांग्ला के मिश्रित भाषा-रूप में लिखे इस गीत को उन्होंने मातृभूमि के प्रति एक प्रार्थना के रूप में गढ़ा था। परंपरा-प्रिय समाज में इसके शब्दों को लेकर आलोचना भी हुई, यहाँ तक कि उनकी बेटी ने भी इसे लेकर असहमति जतायी, लेकिन बंकिमचंद्र इसके जन-स्वीकार की शक्ति पर दृढ़ थे।

1883 में जब आनंदमठ का पहला मंचन ग्रेट नेशनल थियेटर में हुआ, तब संगीतकार देवकंठ बागची ने इसे राग तिलक-कामोद में स्वरबद्ध किया। इससे पहले रवींद्रनाथ और बंकिम चंद्र दोनों के संगीत गुरु, विष्णुपुर घराने के महान पंडित जदुनाथ भट्टाचार्य (जदु भट्ट) इसे राग मल्हार में पिरो चुके थे। 1885 में रवींद्रनाथ टैगोर की भतीजी प्रतिभासुंदरी ने इसका नया संस्करण तैयार किया, जिसमें राग देश की छाप थी। यही स्वररचना बालक पत्रिका में प्रकाशित हुई, भारतमाता के एक कलात्मक चित्र के साथ।

पूर्व सांसद और शिक्षाविद डॉ. सुगत बोस ने कहा, 1896 के कांग्रेस अधिवेशन में जब रवींद्रनाथ टैगोर ने वंदे मातरम् गाया और उनके भाई ज्योतिरिंद्रनाथ पियानो पर संगत कर रहे थे, तब यह गीत एक जन-भावना में बदल चुका था। बीसवीं सदी की शुरुआत में बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन ने इसे स्वदेशी आंदोलन का प्राणतत्व बना दिया। राष्ट्रीय चेतना के दौर में हेमेंद्र मोहन बोस ने इसके सिलिंडर रिकॉर्ड तैयार करवाये, यहाँ तक कि निकोल रिकॉर्ड कंपनी ने भी राग मल्हार में इसके संस्करण रिकॉर्ड किये।

आज जब संसद में यह चर्चा उठ रही है कि वंदे मातरम् को औपचारिक रूप से कैसे और कितना महत्व दिया जाये, यह बहस हमें इस गीत की उस बहुआयामी यात्रा की ओर लौटाती है—एक ऐसी यात्रा जो विद्रोह, आंदोलन, कला, संगीत और राष्ट्रनिर्माण के भावों से बुनी गयी है। यह गीत केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक धड़कन का प्रतीक है जो भारतीय अस्मिता को जोड़ती है।

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