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महाराणा प्रताप के जीवन संघर्ष और हल्दी घाटी के युद्ध में आदिवासियों का अतुलनीय योगदान

महाराणा प्रताप जयंती 29 मई पर विशेष लेख

वासुदेव देवनानी, राजस्‍थान विधानसभा अध्यक्ष

भारत के इतिहास में कई वीर योद्धा हुए लेकिन कुछ ऐसे नाम हैं जो सिर्फ तलवार के दम पर नहीं,बल्कि जनता के दिलों में जगह बनाकर अमर हो गए। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप उन्हीं में से एक हैं। महाराणा प्रताप का जीवन संघर्ष, स्वाभिमान और स्वतंत्रता का प्रतीक है। महाराणा प्रताप के जीवन संघर्ष और हल्दी घाटी के युद्ध में आदिवासियों मेवाड़ और वागड़ अंचल के भील समुदाय का अहम योगदान रहा है। खासकर जब वे मुगलों से जूझ रहे थे, तब हल्दी घाटी के युद्ध में भील आदिवासियों ने न केवल उन्हें सक्रिय सहयोग किया वरन महाराणा प्रताप और उनके परिवार को आश्रय दिया । साथ ही जंगलों के अति विकट मार्गों खास कर अरावली पहाड़ियों के दुर्लभ मार्गों के रहस्यों को खोजने में भी उनका मार्गदर्शन किया तथा गुरिल्ला युद्ध पद्धति को अंजाम देने में उनकी मदद की ।

महाराणा प्रताप ने अपना अधिकांश जीवन कठिन जंगलों, पहाड़ियों और कंदराओं में बिताया जो, आदिवासी जीवन के काफी करीब था। साथ ही उन्होंने अपना अन्तिम समय भी दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर संभाग के सलूम्बर जिले के चावण्ड में भील आदिवासियों के मध्य ही गुजारा। इस वजह से आज भी आदिवासी समाज खुद को उनसे जुड़ा हुआ महसूस करता है। महाराणा प्रताप ने भील समुदाय को केवल अपना विश्वासपात्र सहयोगी ही नहीं, बल्कि हमेशा अपना अनन्य साथी भी माना। उन्होंने भील सैनिकों और उनके भील सरदार पूंजा भील को अपनी सेना में सम्मानपूर्वक स्थान दिया तथा उन्हें राणा पूंजा की उपाधि दी जिससे जनजातीय समाज को सामाजिक गौरव मिला। जब महाराणा प्रताप ने मुगल साम्राज्य से टकराने का निश्चय किया, तो उनके पास सीमित संसाधन थे लेकिन उनके साथ एक मजबूत संकल्प के साथ ही असली ताकत के रूप में भील जनजाति का समर्थन था। इतिहास गवाह है कि हल्दीघाटी के युद्ध से लेकर जंगलों में छिपकर संघर्ष करने तक भील आदिवासी हर मोर्चे पर उनके साथ अडिग खड़े रहे। उन्होंने भील आदिवासियों के साथ कभी भेदभाव नहीं किया, बल्कि उन्हें बहुत सम्मान दिया। यह उस दौर में एक क्रांतिकारी सोच थी।

हल्दीघाटी का युद्ध और भील वीर : महाराणा प्रताप के गुप्त योद्धा

18 जून 1576 को हुए ऐतिहासिक हल्दीघाटी का युद्ध भारतीय इतिहास का वह क्षण है जो त्याग, साहस और आत्मगौरव की प्रतीक बना है। इस युद्ध को अक्सर महाराणा प्रताप बनाम अकबर के प्रतिनिधि मानसिंह के संघर्ष के रूप में देखा जाता है, लेकिन हल्दीघाटी का युद्ध का एक बड़ा और अनदेखा पक्ष है युद्ध में भील योद्धाओं का अद्भुत योगदान। भील भारत की सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक हैं, जो प्राकृतिक जीवन, धनुष-बाण चलाने की कला और कठिन परिस्थितियों में जीने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। महाराणा प्रताप ने जब मुगल साम्राज्य के आगे घुटने टेकने से इनकार किया, तब उनके साथ सबसे पहले खड़े होने वालों में थे भील योद्धा। इन योद्धाओं ने न केवल प्रताप को पहाड़ी इलाकों में छिपने में मदद की, बल्कि जब युद्ध का बिगुल बजा, तो उन्होंने तलवार और तीर-कमान उठाकर महाराणा प्रताप के साथ कंधे से कंधा मिला कर युद्ध लड़ा। इतिहासकार मानते हैं कि हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की कुल सेना करीब 20,000 सैनिकों की थी, जिसमें 5,000 से अधिक भील योद्धा शामिल थे। हल्दीघाटी युद्ध में राजा पूंजा जैसे भील सेनापति और हजारों भील योद्धाओं ने जो त्याग किया, वह हल्दीघाटी की मिट्टी में आज भी गूंजता है।

हल्दीघाटी युद्ध में भील समुदाय की तरफ से नेतृत्व करने वाले प्रमुख सेनापति थे पूंजा भील। वे एक स्थानीय भील राजा थे, जिनका अपना जनजातीय साम्राज्य था। पूंजा ने अपने क्षेत्र के सैकड़ों भील योद्धाओं के साथ महाराणा प्रताप की सेना में शामिल होकर गुरिल्ला युद्ध रणनीति अपनाई। उनके सैनिकों ने मुगलों की भारी-भरकम सेना पर पहाड़ियों, झाड़ियों और जंगलों से छिपकर हमला किया और मुगलों को भारी क्षति पहुँचाई। भील योद्धाओं को पहाड़ी युद्ध और छापामार हमले (गुरिल्ला वार) में महारत थी। वे गुरिल्ला रणनीति के उस्ताद थे। तेज़ी से हमला करते थे और तुरंत गायब हो जाते थे। दुश्मनों को चौंकाने के लिए जंगलों के रास्ते, गुफाओं और ऊँचाई का इस्तेमाल करते थे। यही रणनीति हल्दीघाटी जैसे दुर्गम युद्धस्थल पर महाराणा प्रताप की सेना के लिए वरदान बनी।

भील समुदाय के योगदान पर एक प्रसिद्ध मेवाड़ी दोहा है, जो जनमानस में गहराई से रचा-बसा है:-

“राजा राणा, भील भराया, तब मेवाड़ गढ़ गढ़ाया।” और “भीलां री बहादुरी, रण में देखी बात। राणा रो संग धर्यो, जंगल-जंगल घात।”

मेवाड़ के राजचिह्न (राज्य प्रतीक) में भी आदिवासी भील को प्रमुख रूप से उभारा गया है जोकि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह न केवल भील समुदाय की वीरता और निष्ठा को दर्शाता है, बल्कि मेवाड़ की रक्षा और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को सम्मानित करता है।मेवाड़ के राजचिह्न में भील योद्धा की उपस्थिति यह दर्शाती है कि मेवाड़ की शौर्यगाथा केवल राजपूतों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें आमजन, विशेषकर आदिवासी समाज का भी उतना ही अधिकार है।

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