मुनमुन, सन्मार्ग संवाददाता
काेलकाता : दीपावली आते ही हर घर में खुशियों और रौनक की बहार आ जाती है। इस त्योहार की सबसे अनमोल परंपराओं में से एक है मिट्टी के दीयों से घरों को रोशन करना। कुम्हारों के लिए ये दीये न सिर्फ उजाला करते हैं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक परंपरा को भी जीवित रखते हैं। आधुनिक दौर में भी लोग मिट्टी के दीयों को पूजा और सजावट में प्राथमिकता देते हैं। ऐसे में कुम्हार अपने हुनर से दीपावली की रोशनी को खास बनाने में लगे हैं, ताकि हर घर में सुख-शांति और प्रेम फैले। कुम्हारों के अनुसार यही वह समय होता है जब उनके बनाये दीयों की बाजार में सबसे ज्यादा मांग होती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह परंपरा कमजोर पड़ने के बावजूद कुम्हार अपनी मिट्टी की कला को बरकरार रखने में जुटे हैं।
दीयों में दिखती है परंपरा की रोशनी
दक्षिणदारी के कुम्हार मदन प्रजापति ने सन्मार्ग को बताया कि वह पिछले 30 वर्षों से मिट्टी के दीये बना रहे हैं। उनका कहना है कि यह पेशा उनके पूर्वजों से चली आ रही परंपरा का हिस्सा है। आज भी वे उसी लगन और मेहनत से इस कार्य में जुटे हैं। दीपावली के नजदीक आते ही उनके घर में दीये बनाने का काम जोरों पर होता है। एक दीया बनाने में लगभग 35 पैसे की लागत आती है और बाजार में यह 50 पैसे में बेचा जाता है। मेहनत अधिक और लाभ कम होने के बावजूद वे इस कार्य को छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि यह उनके लिए सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि संस्कृति और आस्था से जुड़ा कार्य है।
हस्तशिल्प में बसती है पहचान
बाजार में चीनी और इलेक्ट्रिक दीयों की भरमार के कारण कुम्हारों के बनाये दीयों की मांग में कमी आयी है। इसके बावजूद पूजा-पाठ और धार्मिक कार्यों में आज भी मिट्टी के दीये शुभ माने जाते हैं। यही कारण है कि लोग आज भी दीपावली पर मिट्टी के दीयों को ही प्राथमिकता देते हैं। कुम्हार का कहना है कि यदि सरकार और समाज थोड़ी मदद करे, तो इस पारंपरिक हस्तशिल्प को फिर से नया जीवन मिल सकता है।