बामाकाली 
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जब मशालों की रोशनी में झूमती हैं मां बामाकाली...

करीब 500 वर्षों से चली आ रही यह परंपरा

कोलकाता: जब पूरा देश दीपावली के दीयों की रोशनी में जगमगा रहा होता है, तब पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों में काली पूजा मनायी जाती है। खासकर, नदिया जिले के शांतिपुर की बामाकाली पूजा एक अनूठी और जीवंत परंपरा है, जो पूरे राज्य ही नहीं, देशभर के श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है।

यह पूजा देवी काली के बामाकाली स्वरूप को समर्पित है। इस रूप में देवी का बायाँ पाँव शिवजी पर रखा होता है जो तांत्रिक साधना और शक्ति की गूढ़ता का प्रतीक है। वहीं बामाकाली का नृत्य इसे और खास बना देता है। पूजा के अगले दिन, जब प्रतिमा विसर्जन की तैयारी होती है, तो देवी की मूर्ति को बांस के मंच पर रखकर भक्तगण कंधे पर उठाते हैं। जैसे ही विसर्जन यात्रा शुरू होती है, ढोल-नगाड़ों की गूंज के साथ श्रद्धालु झूमते हुए नाचते हैं। इस दौरान मां की मूर्ति भी उनके साथ थिरकती है।

इस अद्भुत और दिव्य दृश्य को देखकर लोग भावविभोर हो जाते हैं। रात्रि में जलती मशालों की रोशनी में देवी का यह रूप और भी भव्य लगता है। मशालें न केवल मां के सौंदर्य को उजागर करती हैं, बल्कि विसर्जन के रास्ते को भी आलोकित करती हैं। यही वजह है कि इसकी एक झलक पाने के लिए हर साल हजारों श्रद्धालु शांतिपुर आते हैं।

करीब 500 वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उतनी ही श्रद्धा और उल्लास के साथ निभाई जाती है। हालांकि, इतनी बड़ी भीड़ के कारण भगदड़ की आशंका बनी रहती है, लेकिन जिला प्रशासन पूरी सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करता है। बामाकाली का यह नृत्य सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि बंगाल की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का जीता-जागता उदाहरण है जहां मां स्वयं अपने भक्तों के साथ नृत्य करती हैं।

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