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कलाकार ने चिड़ियाघर में तीन महीने बिताये, तब बना राष्ट्रीय प्रतीक

संविधान दिवस की अनकही कहानी

कोलकाता: पूरे देश ने हाल ही में संविधान दिवस और अपने संविधान के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया। 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ यह 'जीवंत दस्तावेज' आज भी भारत के लोकतंत्र की नींव है। संविधान सभा में 2 साल, 11 महीने और 17 दिनों तक चली बहसों के बीच बाहर एक और अनोखी कहानी लिखी जा रही थी—एक ऐसी कहानी, जिसमें एक युवा कलाकार ने देश के राष्ट्रीय प्रतीक को जीवंत बनाने के लिए तीन महीने चिड़ियाघर में बिताए।

महान कलाकार और चित्रकार नंदलाल बोस के करीबी सहयोगी, शांतिनिकेतन स्थित कला भवन के मात्र 20 वर्षीय छात्र दीनानाथ भार्गव को संविधान के पहले पृष्ठ पर अंकित होने वाले राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ जैसी ऐतिहासिक जिम्मेदारी सौंपी गई। बोस, जो संविधान की कलात्मक साज-सज्जा के मुखिया थे, चाहते थे कि शेरों का चित्रण बिल्कुल वास्तविक लगे। भाव, मुद्रा, चाल, उम्र के अनुसार भिन्नताएँ सब कुछ ठीक वैसा हो जैसा प्रकृति में दिखता है।

इसे साकार करने के लिए भार्गव को 1949-50 में कोलकाता के अलीपुर ज़ू में तीन महीनों तक नियमित रूप से जाना पड़ा। वे शांतिनिकेतन और कोलकाता के बीच 170 किलोमीटर की यात्रा करते थे, सिर्फ इसलिए ताकि वे एशियाई शेरों को ध्यान से देख सकें कि वे कैसे बैठते हैं, कैसे गरजते हैं, कैसे गर्दन मोड़ते हैं। उनकी पत्नी प्रभा भार्गव के अनुसार, वे घंटों चिड़ियाघर में बैठकर शेरों की भंगिमाएँ स्केच करते थे। अशोक स्तंभ, चार दिशाओं में मुख किए चार सिंह, नीचे धर्मचक्र और हाथी, घोड़ा, बैल व सिंह की आकृतियाँ, प्राचीन भारत की शांति, शक्ति और धर्म के मूल्यों का प्रतीक हैं।

इसे राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाने का सुझाव तैयबजी दंपति ने दिया था, जिसे जवाहरलाल नेहरू सहित अन्य नेताओं ने स्वीकार किया। जब नंदलाल बोस भार्गव के स्केच से पूरी तरह संतुष्ट हुए, तभी उन्हें अंतिम चित्रण का दायित्व दिया गया। 26 जनवरी 1950 को जब भारत ने संविधान को अंगीकार किया, उसी दिन भार्गव की बनाई प्रतीक-मुद्रा भी इतिहास में दर्ज हो गई। एक ऐसे कलाकार, जिन्होंने तीन महीनों तक सिंहों को देखकर भारत की आत्मा को रेखांकित किया, की याद दिलाते हुए आज यही प्रतीक मुद्रा, पासपोर्ट, सरकारी इमारतों, अदालतों और तमाम आधिकारिक दस्तावेजों पर गर्व से दिखाई देती है।

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