नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम-2012 (पोक्सो कानून) के एक मामले में एक अभूतपूर्व कदम के तहत अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए नाबालिग के साथ यौन संबंध बनाने के अभियुक्त शख्स को बरी कर दिया। इससे पहले शख्स को 15 वर्षीय लड़की के साथ संबंध बनाने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। हालांकि शीर्ष न्यायालय ने अभियुक्त को दोषी पाया है लेकिन यह कहते हुए उसे कोई सजा नहीं देने का फैसला सुनाया कि सजा देना पीड़ित महिला के लिए परेशानी का सबब हो सकता है।
अभियुक्त ने नाबालिग के साथ यौन संबंध बनाये थे
दरअसल अभियुक्त ने नाबालिग के साथ यौन संबंध बनाये थे। बाद में लड़की के बालिग होने के बाद उसने उससे (पीड़िता से) शादी कर ली थी। दोनों फिलहाल अपने बच्चे के साथ एक साथ रहते हैं। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां के पीठ ने कहा कि पीड़िता ने इसे जघन्य अपराध नहीं माना था। पीठ ने कहा कि वह कभी विकल्प नहीं चुन पायी। समाज ने उसके बारे में नकारात्मक राय बनायी, कानूनी व्यवस्था ने उसे विफल कर दिया, परिवार ने उसे छोड़ दिया। वह अपने पति को बचाने की कोशिश कर रही है।
कानूनी व्यवस्था के साथ लड़ाई…
पीठ ने कहा कि इस मामले के तथ्य सबके लिए आंखें खोलने वाले हैं। यह कानूनी व्यवस्था में खामियों को उजागर करता है। पीड़िता की नजर में यह कानूनी अपराध नहीं था, फिर भी उसको अपने पति को बचाने के लिए पुलिस और कानूनी व्यवस्था के साथ लड़ाई लड़नी पड़ी। पीठ ने कहा कि हालांकि कानून इसे अपराध कहता है लेकिन पीड़िता ने इसे अपराध के रूप में नहीं देखा। उस घटना ने पीड़िता को कष्ट नहीं दिया बल्कि इसके बाद के परिणाम ने उसे झकझोर कर रख दिया। उसे अभियुक्त को सजा से बचाने के लिए पुलिस और कानूनी व्यवस्था से लगातार संघर्ष करना पड़ा।
कलकत्ता हाईकोर्ट ने की थी विवादास्पद टिप्पणी
यह मामला तब सुर्खियों में आया था जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 2023 में शख्स को बरी करते हुए विवादास्पद टिप्पणी की थी। उच्च न्यायालय ने इस मामले में अभियुक्त को बरी करते हुए कहा था कि लड़कियों को अपनी यौन इच्छाओं पर काबू रखने की जरूरत है। टिप्पणी की आलोचना होने के बाद शीर्ष न्यायालय ने मामले पर स्वतः संज्ञान लिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने 20 अगस्त, 2024 को कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया और व्यक्ति की 20 साल सजा को बरकरार रखा।
विशेषज्ञ समिति ने किया अध्ययन
हालांकि शीर्ष न्यायालय ने अभियुक्त को तत्काल रूप से जेल नहीं भेजने का आदेश देते हुए एक विशेषज्ञ समिति का गठन करने का निर्देश दिया था। इस साल 3 अप्रैल को समिति के निष्कर्षों की समीक्षा करने और पीड़िता से बात करने के बाद न्यायालय ने पाया कि पीड़िता को वित्तीय सहायता की जरूरत है। न्याायलय ने 10वीं बोर्ड परीक्षा पूरी होने के बाद पीड़िता को व्यावसायिक प्रशिक्षण देने का भी निर्देश दिया। न्यायालय ने कहा कि वह अभियुक्त से भावनात्मक रूप से जुड़ गयी है और अपने छोटे से परिवार के लिए अधिकारात्मक (पॅजेसिव) भी है। ऐसे में शख्स को सजा नहीं दी जा सकती है।