नयी दिल्ली : दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की ‘आंधी’ में आम आदमी पार्टी (आप) उड़ गयी। वही ‘आप’ जिसने लगातार दो चुनावों में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनायी थी लेकिन इस बार दिल्ली वालों की नाराजगी इस कदर चढ़कर बोली कि ‘आप’ के बड़े-बड़े शूरमा चारों खाने चित्त हो गये। खुद अरविंद केजरीवाल और उनके खास मनीष सिसोदिया ही नहीं बल्कि ‘आप’ के तमाम दिग्गज चुनाव हार गये। ‘आप’ तमाम वादे भी काम नहीं आये।
क्यों बिखरे झाड़ू के तिनके?
‘आप’ की हार तय होते ही चुनावी विश्लेषकों ने ‘झाड़ू’ के तिनके बिखरने की वजहें गिनानी शुरू कर दीं। ज्यादातर विश्लेषकों ने पार्टी की हार का ठीकरा केजरीवाल पर फोड़ते हुए ये वजहें गिनायी हैं-
सत्ता विरोधी भावना यानी एंटी-इन्कंबेंसी
‘आप’ ने अपने जन्म के साथ ही दिल्ली के लोगों के दिल पर राज किया। वह 2013 के अपने पहले चुनाव में भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रही थी लेकिन त्रिशंकु विधानसभा में उसने उस कांग्रेस से हाथ मिला लिया, जिसके ‘भ्रष्टाचार’ के विरोध से उसने राजनीति शुरू की थी, यह बात अलग है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली उसकी सरकार 2 महीने भी नहीं टिक पायी। उसके बाद ‘आप’ ने 2015 में दिल्ली की 70 में से 67 और 2020 में 70 में से 62 सीटों पर जीत के साथ इतिहास रचा और लगातार 10 साल तक सत्ता में रही। लगातार तीसरी बार जीत दर्ज करने में सत्ताविरोधी रुझान यानी एंटी-इन्कंबेंसी आड़े आ गया और ‘आप’ को हार का मुंह देखना पड़ा।
भ्रष्टाचार के आरोप
दिलचस्प बात यह है कि जिस मुद्दे ने ‘आप’ को सत्ता तक पहुंचाया, उसकी पराजय का कारण भी वही मुद्दा बना। पार्टी ने भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से जन्म लिया लेकिन सत्ता में आने पर वह भी अपने दामन को भ्रष्टाचार के दाग से नहीं बचा पायी। खुद को ‘कट्टर ईमानदार’ कहने वाले अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार का आरोप भारी पड़ गया। भ्रष्टाचार के आरोपों में ने केवल उन्हें जेल जाना पड़ा बल्कि उपमुख्यमंत्री। मनीष सिसोदिया और मंत्री सत्येंद्र जैन को भी जेल जाना पड़ा। अन्ना हजारे के ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन’ के शिल्पी अरविंद केजरीवाल जब दिल्ली की सत्ता में आये तो एक नयी तरह की साफ-सुथरी, ईमानदार और वैकल्पिक राजनीति का वादा किया था। केजरीवाल ने शराबा नीति घोटाले के आरोप के बाद, जेल में जाने के बाद भी इस्तीफा नहीं दिया। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने इस्तीफा जरूर दिया लेकिन शायद तबतक बहुत देर हो चुकी थी।
मुफ्त रेवड़ियों से आगे नहीं बढ़ पायी ‘आप’
अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में ‘आप’ ने पहली बार सत्ता में आने के बाद मुफ्त-बिजली पानी वाला मॉडल पेश किया। सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की दशा में भी सुधार का दावा किया। सुधार हुए भी लेकिन उतने भी नहीं जितना पार्टी ने ढिंढोरा पीटा। हर नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने का चलन चलाया। सड़कें बदहाल रहीं, जगह-जगह गंदगी का अंबार रहा। निगम चुनाव में जीत के बाद साफ-सफाई की जिम्मेदारी से भाग भी नहीं सकते थे। यमुना को साफ करने पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किये गये लेकिन पानी आचमन तो छोड़िए नहाने लायक भी नहीं रहा।
अपना ही हथियार उल्टा पड़ गया
केजरीवाल की फ्रीबीज पॉलिटिक्स को मुफ्त की रेवड़ियां बताकर और देश के लिए घातक बताकर भाजपा भी इसी होड़ में कूद गयी। भाजपा ने भी महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये, त्योहारों पर मुफ्त सिलिंडर, बुजुर्गों के लिए बढ़ी हुई पेंशन, मुफ्त इलाज जैसे लोकलुभावन वादे किये। साथ में ‘आप’ सरकार की तरफ से चलायी जा रहीं मुफ्त वाली योजनाओं को भी जारी रखने का वादा किया। इस चुनाव से पहले तक भाजपा दिल्ली में मुफ्त की रेवड़ियों का विरोध किया था लेकिन इस बार उसने केजरीवाल के ही हथियार से केजरीवाल को मात दे दी।
आम बजट ने मिडिल क्लास को लुभाया!
‘आप’ की हार के कारणों में केंद्रीय बजट को भी गिना जाये तो गलत नहीं होगा। चुनाव से ठीक पहले जिस तरह बजट में मध्यम वर्ग को बड़ी सौगात दी गयी, 12 लाख रुपये तक की आमदनी और वेतनभोगियों के मामले में तो 12.75 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी को आय कर से मुक्त करने का जो ऐलान हुआ, उसका सीधा लाभ भाजपा को मिला।
गैर-जिम्मेदार और अहंकार की राजनीति
केजरीवाल ने सियासत में कदम रखते ही अलग तरह की राजनीति के नाम पर बिना किसी सुबूत या आधार के बाकी सभी पार्टियों और उनके नेताओं को चोर-बेईमान बताना शुरू किया था और यह दोषारोपण तब तक चला जब तक कि उन्होंने नितिन गडकरी, कपिल सिब्बल, अवतार सिंह भड़ाना जैसे नेताओं से अदालतों में माफी नहीं मांग ली। ‘आप’ की हार का एक बड़ा कारण खुद के ‘अजेय’ होने का दंभ भी रहा। इसी दंभ में पार्टी ने गठबंधन के लिए बढ़ाे गये कांग्रेस के हाथ को झटक दिया।