नई दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करके एक महिला न्यायिक अधिकारी की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए एक वकील को दी गयी सजा कम करने से इनकार करते हुए कहा है कि लिंग-विशिष्ट अपशब्दों के माध्यम से किसी न्यायाधीश को धमकाने या डराने वाला कोई भी कृत्य न्याय पर हमला है।
न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा के पीठ ने कहा कि यह महज व्यक्तिगत दुर्व्यवहार का मामला नहीं है बल्कि ऐसा मामला है जहां ‘न्याय के साथ ही अन्याय हुआ’ और जहां कानून की निष्पक्ष आवाज काे प्रतीक एक न्यायाधीश अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते समय व्यक्तिगत हमले का निशाना बनीं। पीठ ने कहा कि यह अत्यंत चिंता का विषय है कि कभी-कभी न्यायाधाीश भी लैंगिक दुर्व्यवहार से मुक्त नहीं रह पाते। जब एक महिला न्यायाधीश को अदालत के एक अधिकारी, जैसे इस मामले में एक वकील, द्वारा व्यक्तिगत अपमान और निरादर के व्यवहार का सामना करना पड़ता है, तो यह न केवल एक व्यक्तिगत अन्याय को दर्शाता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि महिलाएं आज भी न्याय व्यवस्था के उच्चतम स्तरों पर भी एक प्रणालीगत असुरक्षा का सामना करती हैं।
पीठ ने गत सोमवार के अपने फैसले में दोषी वकील को पहले ही जेल में बितायी गयी पांच महीने की अवधि को सजा के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया। हालांकि पीठ ने निचली अदालत के आदेश में यह संशोधन किया कि सजा एक साथ चलेंगी न कि क्रमानुसार। निचली अदालत द्वारा अलग-अलग सजा को क्रमानुसार चलाने का जो निर्देश दिया गया था, उससे कुल सजा अवधि दो वर्ष हो जाती।