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बंद बागान से नयी सुबह तक : सोनाली श्रमिकों की प्रेरक कहानी

सन्मार्ग संवाददाता

नागराकाटा : जब कोई चाय बागान बंद हो जाता है, तब जो भयावह परिस्थिति बनती है, उसे केवल वहीं श्रमिक समझते हैं जो उसे भुगतते हैं। उस समय जीवन जीने की पीड़ा अनेक करुण कहानियों में बदल जाती है। डुआर्स का एक समय का चर्चित “सोनाली चाय बागान” जब बंद हुआ और बाद में वहां के श्रमिकों ने जिस तरह से संघर्ष करते हुए जीवन को फिर से खड़ा किया, उसी स्वर्णिम गाथा को रुपहले परदे पर उतारा है उसी चाय बागान के श्रमिक परिवारों के बेटे-बेटियों ने। 1 घंटे 35 मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री का नाम है: "खुन पसीना जेकर, चाय बागान ओकर" (रक्त और पसीना जिनका, चाय बागान उन्हीं का)। गुरुवार को यह फिल्म सोनाली चाय बागान के बड़ा लाइन क्षेत्र में बड़े पर्दे पर दिखाकर रिलीज की गई। इसमें डुआर्स के अन्य बागानों के श्रमिक भी मौजूद थे। इस फिल्म को बनाने में दो वर्षों की कड़ी मेहनत लगी, जिसमें प्रमुख योगदान सोनाली बागान के ही कॉलेज छात्र जन उरांव का है, जो फील्ड रिसर्चर के रूप में जुड़े थे। उनके अनुसार सोनाली की सच्ची कहानी के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की गई है कि जब किसी चाय बागान में आजीविका नहीं होती, तो श्रमिकों की स्थिति कैसी हो जाती है। साथ ही, यह भी दिखाया गया है कि कैसे एकजुट होकर श्रमिकों ने सहकारी व्यवस्था के माध्यम से इतिहास रचा। इस डॉक्यूमेंट्री के निर्माता और डुआर्स के सामाजिक कार्यकर्ता रूपम देव ने कहा, “जब बागान बंद हो जाता है, तब सहकारी समिति ही एकमात्र उपाय बन सकती है। हमारी फिल्म यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर देती है। फिल्म फिलहाल सादरी और कुछ हद तक कुरुख भाषा में बनी है। सह-निर्माता शरद महली के अनुसार आगे चलकर इसमें बांग्ला, हिंदी, नेपाली और अंग्रेजी में सबटाइटल जोड़े जाएंगे। इस फिल्म को बानाने में और इससे जुड़े युवा प्रवीर भगत, जेनेसियस कछुआ, शिखा मिंज कहते हैं कि अगर यह काम नहीं होता, तो हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता के बारे में हमें कभी पता नहीं चलता। यह डॉक्यूमेंट्री आगे चलकर डुआर्स-तराई के अन्य चाय बागानों में भी प्रदर्शित की जाएगी।

क्या हुआ था सोनाली चाय बागान में?

24 सितंबर, 1973 को दुर्गा पूजा बोनस विवाद को लेकर सोनाली बागान (पुराना नाम: साओगांव) बंद हो गया था। एक साल तक श्रमिकों को अत्यंत गरीबी में रहना पड़ा। फिर 6 सितंबर, 1974 को श्रमिकों ने एक सहकारी समिति बनाई। यह समिति 9 जुलाई, 1978 तक सफलता से चली। 1977 में श्रमिकों को 20% बोनस दिया गया, जो एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। जलपाईगुड़ी को-ऑपरेटिव बैंक से लोन लेकर श्रमिकों ने 40,000 रुपये में एक जीप और 64,000 रुपये में कच्चा पत्ता ढोने के लिए एक ट्रैक्टर खरीदा। श्रमिकों ने महिलाओं की शिक्षा का भी इंतजाम किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि 1976 में भारत में समान वेतन कानून लागू होने से पहले ही, 1974 से ही यहां पुरुषों और महिलाओं को बराबर वेतन दिया जाने लगा। डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि जब बागान बंद हुआ था, तब श्रमिकों ने किस तरह पैदल तिस्ता नदी पार कर जलपाईगुड़ी के जिलाधिकारी कार्यालय में जाकर प्रदर्शन किया। वह दृश्य बेहद भावुक और प्रेरणादायक है। आज भी सोनाली के इतिहास के कुछ गवाह जीवित हैं। उन्हीं में से एक हैं मट्टू उरांव, जो सहकारी समिति के उपाध्यक्ष रहे थे। डॉक्यूमेंट्री देखते समय वे भावुक होकर फूट-फूट कर रो पड़े और बोले, हम कर पाए थे, अगर हम कर सकते हैं तो बाकी बंद बागान भी कर सकते हैं।

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