नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में अग्रिम जमानत बिना सोच-विचार किये नहीं दी जानी चाहिए।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता के पीठ ने हत्या के एक मामले में चार अभियुक्तों को अग्रिम जमानत दिये जाने के आदेश को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। पीठ ने एक मई के दिये अपने आदेश में कहा कि (पटना) उच्च न्यायालय के आदेश में भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 307 के तहत गंभीर अपराधों से जुड़े मामले में अग्रिम जमानत देने का कोई तर्कपूर्ण आधार नहीं बताया गया है। आदेश में कहा गया कि यह समझ से परे है कि उक्त आदेश क्यों दिया गया और इसमें न्यायिक विश्लेषण का अभाव है। गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में, इस तरह से बिना सोच-विचार किये अग्रिम जमानत देना उचित नहीं है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।
प्राथमिकी और उसके साथ दी गयी सामग्री को सरसरी तौर पर पढ़ने पर शीर्ष न्यायालय ने पाया कि अपीली के पिता पर हमला किया गया और उसकी हत्या अपीली की उपस्थिति में की गयी पीठ ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि यह घटना एक रास्ते को अवरूद्ध करने से जुड़े विवाद से उपजी है। जैसा कि प्राथमिकी में कहा गया है, अभियुक्तों की विशिष्ट भूमिकाएं इस बात का संकेत देती हैं कि पीड़ित (जिसकी बाद में मृत्यु हो गयी) के अचेत हो जाने के बाद भी उन्होंने हमला जारी रखा। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय मामले में आरोपों की गंभीरता और प्रकृति को समझने में ‘स्पष्ट रूप से विफल’ रहा। इसलिए अभियुक्त को आठ सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया जाता है।