रामबालक, सन्मार्ग संवाददाता
कोलकाता : जूट उद्योग ने 2025 में एक और संकटग्रस्त वर्ष देखा। कच्चे माल की भारी कमी, रिकॉर्ड स्तर की कीमतें और खाद्यान्न पैकेजिंग के लिए प्लास्टिक बैग पर बढ़ती निर्भरता ने इस क्षेत्र को अस्थिर कर दिया। साल की शुरुआत में कच्चे जूट की उपलब्धता और पैकेजिंग मांग के बीच जो असंतुलन पैदा हुआ था, वह दिसंबर तक धीरे-धीरे एक गहरे संकट में बदल गया। इसका एक प्रमुख कारण किसानों का मक्का जैसी वैकल्पिक फसलों की ओर रुख करना रहा, जिससे जूट की खेती में गिरावट आई।सरकारी आंकड़ों के अनुसार खरीफ सत्र के दौरान 2025 में सितंबर के अंत तक जूट का रकबा लगभग 5.56 लाख हेक्टेयर रहा, जो सामान्य क्षेत्रफल लगभग 6.60 लाख हेक्टेयर से कम है और पिछले वर्ष की बुवाई से भी नीचे है। यह गिरावट ऐसे वक्त में आई, जब सरकार ने 2025-26 सत्र के लिए कच्चे जूट (टीडी-3 श्रेणी) का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,650 रुपये प्रति क्विंटल तय किया था। मिल मालिकों के एक संगठन के अधिकारियों ने बताया कि आपूर्ति सख्त होने के कारण सरकार को खाद्यान्न खरीद में जूट बैग के उपयोग को धीरे-धीरे कम करना पड़ा और प्लास्टिक विकल्पों की अनुमति देनी पड़ी। वहीं, श्रम प्रधान यह उद्योग उत्पादन कटौती, मिलों के बंद होने और बढ़ते वित्तीय दबाव से जूझता रहा।पश्चिम बंगाल में 10,000 करोड़ रुपये का यह क्षेत्र 2.4 लाख से अधिक प्रत्यक्ष मिल मजदूरों और लगभग पांच लाख किसानों को रोजगार देता है। इस दौरान कच्चे जूट की कीमतों में अभूतपूर्व उछाल देखने को मिली। फसल वर्ष 2024-25 (जुलाई-जून) के दौरान जहां कीमतें गिरकर लगभग 4,700 रुपये प्रति क्विंटल तक आ गई थीं, वहीं इस महीने कई बाजारों में यह 11,000 रुपये प्रति क्विंटल को पार कर गईं। उद्योग से जुड़े लोगों के अनुसार ऐसा सट्टेबाजी नहीं बल्कि वास्तविक भौतिक कमी के चलते हुई।
भारतीय जूट मिल्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष का बयान
भारतीय जूट मिल्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष संजय काजरिया ने कहा कि मौजूदा समय में केंद्र और राज्य सरकार को एक साथ मिलकर काम करना पड़ेगा, अन्यथा जूट उद्योग संकट में चला जाएगा। इस तरह रहने से अगस्त तक जूट मिल चलाना मुश्किल हो जाएगा।