नई दिल्ली : दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि एक महिला का अपने बच्चे की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ना ‘स्वैच्छिक परित्याग’ नहीं होता है, इसलिए वह गुजारा भत्ता पाने की हकदार है। इसके साथ ही उच्च न्यायालय ने एक महिला और उसके नाबालिग बेटे को अंतरिम भरण-पोषण देने संबंधी निचली अदालत के आदेश को खारिज करने से मना कर दिया।
बच्चे के लिए अलग से प्रतिमाह 4,500 रुपये देने का आदेश
न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा के एकल पीठ ने 13 मई को जारी एक आदेश में कहा कि इस स्थिति को बच्चे की देखभाल करने के परम कर्तव्य के परिणाम के तौर पर देखा जा सकता है। पति ने निचली अदालत के अक्टूबर, 2023 के उस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी, जिसमें उसे (पति को) अलग रह रही अपनी पत्नी और बच्चे को 7,500 रुपये प्रतिमाह गुजारा भत्ता देने के लिए कहा गया था। पीठ ने अपीली पति को निर्देश दिया कि वह महिला को निचली अदालत द्वारा निर्धारित मासिक राशि देना जारी रखे, साथ ही अपने बच्चे के लिए अलग से प्रतिमाह 4,500 रुपये दे। पीठ ने कहा कि यह पूरी तरह से स्थापित तथ्य है कि नाबालिग बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी माता या पिता पर असमान रूप से पड़ती है, जो अक्सर पूर्णकालिक रोजगार की उनकी क्षमता को सीमित कर देती है, खासकर उन मामलों में जहां मां के नौकरी पर होने के दौरान उसके बच्चे की देखभाल में परिवार का कोई सहयोग नहीं मिलता है।
महिला खुद व बच्चे का भरण-पोषण करने में सक्षम : पति की दलील
पति ने निचली अदालत के आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि महिला उच्च शिक्षा प्राप्त थी और पहले दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में अतिथि शिक्षिका के रूप में काम करती थी, जिससे वह प्रतिमाह ट्यूशन फीस सहित 40,000 से 50,000 रुपये अर्जित करती थी। पति ने दावा किया था कि महिला कमाने और खुद का तथा बच्चे का भरण-पोषण करने में सक्षम थी लेकिन उसे (पति को) परेशान करने के इरादे से याचिका दायर की गयी। अपीली ने दलील दी थी कि परिवार अदालत ने इस तथ्य पर विचार न करके त्रुटि की है कि महिला अपनी मर्जी से ससुराल से चली गयी थी और अदालत के आदेश के बावजूद उसने अपने पति के साथ अपने वैवाहिक संबंध फिर से शुरू नहीं किये।