विशाखा तिवारी
कोलकाता : बंगाल की मिट्टी में अगर किसी मिठास की खुशबू सबसे गहराई से रची-बसी है, तो वह है संदेश। यह सिर्फ एक मिठाई नहीं, बल्कि भावनाओं, परंपराओं और पहचान का स्वाद है। यूं तो बंगाल में मिठाइयों की कोई कमी नहीं। रसगुल्ले, चमचम, पायेश, लेकिन संदेश की बात ही कुछ और है। इसमें शक्कर से ज्यादा अपनापन घुला होता है,और दूध से ज्यादा संस्कृति। संदेश की मिठास आज केवल भारत तक सीमित नहीं रही। उसने सरहदें पार कर पूरी दुनिया में अपने स्वाद का जादू बिखेर दिया है। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया है कि संदेश पर बनी नाज़ुक आकृतियां भी अपनी-अपनी कहानियां कहती हैं? कभी फूल बनकर वह प्रकृति से संवाद करता है, तो कभी शंख या पत्ते के रूप में बंगाल की आत्मा को आकार देता है।
लोग संदेश को सिर्फ खाने के लिए नहीं, बल्कि उसकी खूबसूरती को निहारने के लिए भी थम जाते हैं, जैसे किसी कला-कृति के सामने खड़े हों। अफसोस बस इतना है कि संदेश ने तो अपनी पहचान बना ली, मगर उन हाथों को वह पहचान नहीं मिल पाई, जिनकी उंगलियों ने इन आकृतियों में जान फूंकी। वे अनाम कलाकार, जो हर दिन मिठास को आकार देते हैं, अपनी कला को संदेश में ढाल देते हैं और खुद पीछे रह जाते हैं। शायद अगली बार जब हम संदेश का एक टुकड़ा उठाएं, तो उसके स्वाद के साथ-साथ उस कलाकार की मेहनत और भावनाओं को भी महसूस करें क्योंकि संदेश सिर्फ मिठाई नहीं, एक एहसास है।
एक समय था जब संदेश की हर खूबसूरत आकृति के पीछे किसी कलाकार का नाम नहीं, लेकिन उसकी आत्मा जरूर बसती थी। आज वही आत्मा चुपचाप खोती जा रही है। संदेश को सुंदर रूप देने वाले लकड़ी के सांचे बनाने वाले कलाकार अब धीरे-धीरे पहचान की रोशनी से दूर होते जा रहे हैं। पिछले 50 सालों से भोलानाथ दास अपनी कल्पना उकेरते आ रहे हैं। उनकी उँगलियों ने अनगिनत फूल, पत्तियां शंख और परंपरागत डिजाइन गढे।
ऐसे डिजाइन्स जिन्हें देखकर संदेश सिर्फ मिठाई नहीं, कला का रूप ले लेता है। लेकिन आज यह कला शायद अपनी आख़िरी पीढ़ी गिन रही है। कोलकाता में जन्मे और अब बर्दवान में रहने वाले भोलानाथ दास आज भी कमजोर होती आंखों व झुके हुए कंधों के साथ लकड़ी पर आकृतियां तराशते हैं। हर वार के साथ उनकी मेहनत बोलती है, और हर सांचा एक कहानी कहता है—संघर्ष, धैर्य और प्रेम की।
यह कहानी सिर्फ भोलानाथ दास की नहीं है। यह उन सभी कलाकारों की कहानी है, जो इस पेशे में अपनी पहचान धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। जिनके हाथों की कला ने सदियों से मिठास को आकार दिया, आज वही हाथ हाशिये पर हैं। हालात ऐसे हैं कि वे अपनी आने वाली पीढ़ी को इस राह पर चलने से रोकना चाहते हैं। कोई पिता नहीं चाहता कि उसका बच्चा वही आर्थिक तंगी, वही असुरक्षा और वही अनदेखापन झेले, जिसे वह खुद जीवन भर झेलता आया है। और जो बच्चे हैं, वे भी इस पेशे से दूर जाना चाहते हैं—क्योंकि कला तो विरासत बन सकती है, लेकिन भूख का उत्तर नहीं।
शायद हमें यह समझना होगा कि जब एक सांचा टूटता है, तो सिर्फ लकड़ी नहीं टूटती—एक परंपरा, एक पहचान और एक संस्कृति भी दरक जाती है। अगली बार जब संदेश की किसी सुंदर आकृति पर नजर ठहरे, तो उस मिठास के पीछे छिपे कलाकार को भी याद करें। क्योंकि अगर ये हाथ थम गए, तो संदेश का स्वाद तो रहेगा, मगर उसकी आत्मा कहीं खो जाएगी।