वेदों में परस्पर मित्रता की अवधारणा

वेदों में परस्पर मित्रता की अवधारणा
Published on

दोमित्रों के बीच मित्रता की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। मैत्री अर्थात् मित्रता अथवा बन्धुत्व लोगों के मध्य पारस्परिक स्नेह का एक मधुर सम्बन्ध है। यह एक सहपाठी, पड़ोसी अथवा सहकर्मी जैसे परिचित अथवा सहचर की तुलना में पारस्परिक बन्धन का एक मजबूत व शक्तिशाली रूप है। भारतीय संस्कृति में मैत्री की अवधारणा बहुत ही गहरे सम्बन्धों को इंगित करती है। एक व्यक्ति के कई मित्र हो सकते हैं, और प्रायः एक या दो लोगों के साथ अधिक गहन सम्बन्ध हो सकते हैं, जिन्हें अच्छे या सबसे अच्छे मित्र कहा जा सकता है। यद्यपि मैत्री के कई रूप हैं, जिनमें कुछ स्थानीय भिन्नता हो सकते हैं। ऐसे कई बन्धनों में कुछ विशेषताएँ होती हैं। एक दूसरे के साथ रहना, एक साथ बिताए समय का आनन्द लेना और एक दूसरे के लिए सकारात्मक और सहायक भूमिका निभाने में सक्षम होना आदि मित्रता की विशेषताओं में शामिल है। एक मित्र होने का अर्थ है अपने सच्चे और ईमानदार हिस्से को साझा करना। मित्रता महज एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक बड़ा उत्तरदायित्व है, जिसे दोनों पक्षों को स्वेच्छा से ग्रहण करना पड़ता है। एक मित्र का कर्तव्य उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना है कि मित्र अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का कार्य कर गुजरे। इसीलिए मित्रों के चुनाव को सचेत कर्म समझकर हमें अपने से अधिक आत्मबल वाले व्यक्तियों को मित्र के रूप में ढूंढना चाहिए।

ऐसे व्यक्तियों से सुग्रीव के द्वारा श्रीराम से मित्रता का बंधन बंधाये जाने के समान मित्रता का बंधन बना लेना चाहिए। मित्र प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के होने चाहिए। मित्र मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे उन पर भरोसा और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। मनुष्यों और पशुओं के बीच भी मैत्री हो सकती है। एक मनुष्य और एक गिलहरी अथवा बन्दर की मैत्री के दृश्य तो अक्सर ही दृष्टिगोचर होते रहते हैं। मैत्री उच्च बुद्धि वाले उच्च स्तनधारी पशुओं और कुछ पक्षियों में पाई जाती है। अन्तःप्रजातीय मैत्री मनुष्यों और पालतू पशुओं यथा, पालतू सर्प के बीच सामान्य है।

अन्तःप्रजातीय मैत्री दो पशुओं, जैसे कुत्तों और बिल्लियों के बीच भी हो सकती है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में मित्र शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि (ञिमिदा स्नेहने) इस धातु से औणादिक 'क्त्र' प्रत्यय के होने से 'मित्र' शब्द सिद्ध होता है। 'मेद्यति, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्रः' जो सब से स्नेह करके और सब को प्रीति करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम 'मित्र' है। वेदों में अंकित शन्नो मित्रः शं व०…. आदि मंत्रों में जो मित्रदि नाम आये हैं, वे भी परमेश्वर के हैं, क्योंकि स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ ही की की जाती है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सब से अधिक हो। उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ उसको परमेश्वर कहते हैं।

जिस के तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्योंकर हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़ पदार्थ वा जीव के नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य है, उसके गुण, कर्म्म, स्वभाव भी सत्य ही होते हैं। इसलिए सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें। मित्रदि नामों से सखा और इन्द्रादि देवों के प्रसिद्ध व्यवहार देखने से उन्हीं का ग्रहण करना योग्य नहीं, क्योंकि जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और किसी से उदासीन भी देखने में आता है। इससे मुख्यार्थ में सखा आदि का ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु जैसा परमेश्वर सब जगत् का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है, इससे भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नहीं हो सकता, इसलिये परमात्मा ही का ग्रहण यहाँ होता है। हाँ, गौण अर्थ में मित्रदि शब्द से सुहृदादि मनुष्यों का ग्रहण होता है।

विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेदों में भी मित्रता की अवधारणा है। मित्रता के गुण की महिमा परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में भी गाये गये हैं, और मनुष्यों के मध्य परस्पर मित्रता की कामना की गई है। अथर्ववेद 7/36/1 में परस्पर मित्रता होने की कामना करते हुए कहा गया है कि हम दोनों मित्रों की दोनों आँखें ज्ञान का प्रकाश करने वाली हों। हम दोनों का मुख यथावत विकास वाला होवे। हमें अपने हृदय के भीतर कर लो। हम दोनों का मन भी एकमेव हो। अर्थात् हम सदा ही प्रीति पूर्वक रहें। यजुर्वेद 36/18 में सभी के प्रति मित्रभाव होने की प्रार्थना परमात्मा से करते हुए कहा गया है कि तुम मुझे दृढ़ बनाओ। सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूँ। हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। मित्रता में मनुष्यों के मध्य एकमत होना सबका विचार एक होना आवश्यक है, अन्यथा यह सम्बन्ध प्रगाढ़ नहीं हो सकती।

इसलिए परमेश्वर स्वयं सभी को एकमत होने का सन्देश देते हुए ऋग्वेद 10/191/2 में कहता है-हे स्तीताओं ! तुम मिलकर रहो। एक साथ स्तोत्र पढ़ो और तुम लोगों का मन एक सा हो। प्राचीन देवताओं के एकमत होकर अपना हविर्भाग स्वीकार करने की भांति ही तुम लोग भी एकमत होकर रहो। इसका अगला मन्त्र ऋग्वेद 10/191/3 सबके विचार एक होने की कामना करते हुए कहता है कि इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ हो और इनके मन (अन्तःकरण) तथा चित्त (विचारजन्य ज्ञान) एकविध हों। ऋग्वेद 6/45/6 में परमात्मा से द्वेषभाव न होने की प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे प्रभु ! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है। तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है। सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर कहलाता है। ईर्ष्या मित्रता की सबसे बड़ी बाधक है। इसीलिए ईर्ष्या से मुक्त होने का संदेश देते हुए अथर्ववेद 6/18/1 में परमात्मा की वाणी है कि हे ईर्ष्या संतप्त मनुष्य ! हम ईर्ष्या की पहली और उसके बाद वाली अर्थात् दूसरी वेगवती गति को, ज्वाला को बुझाते हैं। इस तरह तेरी उस हृदय में जलने वाली अग्नि को तथा उसके शोक संताप को बिल्कुल शान्त कर देते हैं। अर्थात् मनुष्य दूसरे की वृद्धि देख कर कभी ईर्ष्या नहीं करना चाहिए। द्वेष की परम्परा का अवसान करने के लिए अथर्ववेद 19/41/1 में कहा गया है कि हे भाई ! मैं ही तेरे साथ द्वेष करना छोड़ देता हूँ।

अब यही कल्याणकर है कि मैं अब समाप्ति पर आ जाऊँ, शत्रुता की परम्परा का विराम कर दूँ। द्यौ और पृथ्वी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएँ। सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रुरहित हो जाएँ। मेरे लिए अब अभय ही अभय हो जाए। अथर्ववेद 6/40/3 में परमात्मा इंद्र से प्रार्थना करते हुए हुए कहा गया है कि हमारे लिए नीचे से निर्वैरता, ऊपर से, पीछे से और आगे से निर्वैरता तू हमारे लिए कर दे। अर्थात् हम सदा निर्वैर हो कर रहें। अथर्ववेद 14/1/22 में आपसी प्रेम व संयुक्त परिवार का संदेश देते हुए वर-वधू से परिवार में सबके मिलकर रहने की आकांक्षा की गई है कि यहाँ गृहस्थाश्रम के नियमों में ही तुम दोनों रहो। कभी अलग मत होओ। पुत्रों के साथ तथा नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए, हर्ष मनाते हुए और उत्तम घर वाले तुम दोनों सम्पूर्ण आयु को प्राप्त होओ।

अथर्ववेद 3/30/2 में कामना की गई है कि पुत्र पिता के अनुकूल व्रती हो कर माता के साथ एक मन वाला होवे। पत्नी-पति से मधुवत अर्थात् मधु के समान और और शान्तिप्रद वाणी बोले। सन्तान माता-पिता की आज्ञाकारी और माता-पिता सन्तानों के हितकारी हों। पति-पत्नी आपस में मधुरभाषी और मित्र हों। यजुर्वेद 2/34 में पितरों को अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम रस, स्वादिष्ट जल, अमृतमय औषधि, दूध घी, स्वादिष्ट भोजन, रस से भरे हुए फलों को दे कर तृप्त करने के लिए आदेश देते हुए कहा गया है कि परधन का त्याग करके अपने को प्राप्त धन का उपयोग करने वाले होओ। अर्थात् जिस प्रकार पितर अर्थात माता-पिता आदि ने हमारा पालन-पोषण किया है, उसी प्रकार हमें भी उनकी सेवा व सत्कार करना चाहिए। अथर्ववेद 3/30/3 में भाई, भाई से और बहन, बहन से द्वेष नहीं करने, एकमत वाले और एकव्रती होकर कल्याणी रीति से वाणी बोलने अर्थात परिवार में सबके प्रेमपूर्वक रहने के लिए कहा गया है। अथर्ववेद 20/128/2 स्त्रियों को सम्मान देने की आज्ञा देते हुए कहता है कि कुलस्त्री को गिराने, मित्र को मारने की इच्छा रखने वाले मनुष्य अतिवृद्ध हो कर भी अज्ञानी है। ऐसा मनुष्य परमात्मा को नहीं भजता और अधोगति को प्राप्त होता है। अथर्ववेद 14/1/44 में बधू को अपने श्वसुर, सास देवरों तथा ननदों के मध्य सम्राज्ञी होने की घोषणा करते हुए उसे ससुराल पक्ष के लोगों को सम्मान देने की आज्ञा देते हुए कहा गया है कि वधू ! तुम अपने विद्या और बुद्धि के बल से तथा अपने कर्तव्यों से छोटे-बड़े सबके मध्य प्रतिष्ठित हो। इसी प्रकार अथर्ववेद 14/2/17 में वधू से कहा गया है कि तू घर वालों के लिए प्रिय दृष्टि वाली, पति को न सताने वाली, सुखदायिनी, कार्यकुशला, सुन्दर सेवा वाली, सुन्दर मनवाली, वीरों को उत्पन्न करने वाली और प्रसन्न चित्त वाली हो। तेरे साथ मिल कर हम सब घर वाले बढ़ते रहें। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक ग्रन्थों में मित्रता की महिमागान करते हुए घर-परिवार से लेकर समाज और विश्व में मित्रता, मैत्री व विश्व बन्धुत्व की कामना की गई है। -अशोक "प्रवृद्ध"-सु

संबंधित समाचार

No stories found.

कोलकाता सिटी

No stories found.

खेल

No stories found.
logo
Sanmarg Hindi daily
sanmarg.in