कोलकाता : बढ़ती आयु के साथ स्मरण शक्ति का अपक्षय और हृास तो स्वाभाविक है। जैसे शरीर के अन्य अंग शिथिल होते जाते हैं वैसे ही स्मरण शक्ति भी प्रभावित होती ही होगी किंतु स्मरण शक्ति के कमजोर होने से जो उलझन होती है और परेशानी उठानी पड़ती है वह बहुत तकलीफ देती है। राह चलते कोई मिलता है, तपाक से दुआ – सलाम करता है, हाल-चाल पूछता है। हम यन्त्रवत उसके सवालों के जवाब में हां-हूं करते रहते हैं किंतु मस्तिष्क इसी उलझन में ग्रस्त रहता है कि यह सज्जन आखिर है कौन।
बहुत बार तो हमारी यह दिमागी उलझन हमारे चेहरे पर भी उतर आती है और सामने वाले को इस का आभास हो जाता है। वह कह बैठता है कि शायद आपने मुझे पहचाना नहीं। बजाय स्वीकार कर लेने के कि, ‘हां भई आप का नाम अभी ध्यान में नहीं आ रहा’ हम अक्सर दुनियांदारी निभाते हुए बोल देते हैं कि, ‘अरे नहीं, पहचाना कैसे नहीं, भला आपको भी नहीं पहचानेंगे।’ खैर, वह तो चला जाता है मगर हमारा मस्तिष्क इसी उलझन में घंटों ग्रस्त रहता है कि आखिर वह था कौन। कई बार ऐसे मुंहफट लोग भी मिल जाते हैं जो हमारे यह कहने पर कि, ‘भला आपको कैसे नहीं पहचानेंगे’, सीधे स्पष्ट पूछ ही लेते हैं कि अच्छा तो बताइए कि मैं कौन हूं। तब जो असुविधा और असहजता की स्थिति उत्पन्न होती है, उसे भुक्तभोगी ही जानता है। हमारे एक सयाने अनुभवी वरिष्ठ साथी की सलाह है कि उपरोक्त स्थिति में सीधे स्पष्ट कह देना ही उचित है कि, ‘फिलहाल मैं आपको प्लेस नहीं कर पा रहा हूं।’ बजाए बाद में घटों मस्तिष्क को उलझाए रखने के तुरन्त समाधान कर लेना ही हितकर है।
प्रख्यात चिन्तक और लेखक श्री नरेन्द्र कोहली ने कुछ और ही तरकीब निकाली है। जब वह किसी मिलने वाले का नाम याद नहीं कर पाते तो एक कागज उसके सामने बढ़ा कर कहते हैं कि भाई अपना वर्तमान पता-ठिकाना इस पर लिख दो मगर कभी कभी यह तरकीब भी काम नहीं करती। जब वह केवल पता भी लिख देता है नाम नहीं, तब कोहली साहिब को कहना पड़ता है कि भाई नाम भी लिख दो वरना मैं भूल जाऊंगा कि यह पता किस का है। तरकीबें तो और भी हो सकती हैं किंतु शायद स्पष्ट रूप से यह स्वीकार कर लेना सर्वोत्तम है कि याददाश्त काम नहीं कर रही। आखिर आंखों की रोशनी क्षीण पड़ जाती है या सुनाई कम पडऩे लगता है तब तो हम किसी प्रकार की शरम महसूस नहीं करते। फिर स्मरण शक्ति के कमजोर हो जाने पर ही बहानेबाजी का सहारा क्यों।
हम से ही कई बार हुआ है कि सब्जी लेने सब्जी मण्डी गए। पत्नी ने कुछ बताया था, हम कुछ और ही उठा लाए। इसी प्रकार किराने की दुकान पर तो पहुंच गए किंतु वहां याद ही नहीं आया कि लेने क्या आये थे। अचानक ही नई रचना हेतु कोई विषय सूझा मगर जरा सी देर में ही वह ध्यान से उतर गया। हमने तो अब इसका सीधा समाधान ढूंढ लिया है। तुरंत कागज पर नोट कर लो। न स्मरण शक्ति पर जोर देने की जरूरत और न दिमाग को अकारण उलझाने की। हमें याद है कि बुजुर्ग लोग कहा करते थे कि ‘पहले लिख पीछे दे, भूलचूक कागज से ले।’ यद्यपि संदर्भ दूसरा है किंतु लिख लेने की उपयोगिता तो स्पष्ट ही है।
स्मरण शक्ति का अभाव और लोप झेलने वाले आप अकेले नहीं हैं। जनसंख्या का एक बड़ा भाग आपके साथ है। अत: सकुचाइए शरमाइए नहीं, खिसियाइए और झुंझालाइए नहीं। अपने आप को कोसिये नहीं। ऊपर लिखे टोटके आजमाइए और सबसे बढक़र स्मरण शक्ति की लुकाछिपी पर मुस्कुराने की आदत डालिए।