हावड़ा : भगवान राम के वनवास से लौटने के बाद अयोध्या में लोगों ने खुशियां मनाई थीं और मिट्टी के दीपक जला कर अयोध्या को जगमग कर दिया था। तब से लेकर आज तक दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा रही है। कुम्हार सालों से मिट्टी के दीपक बनाते आ रहे हैं और यही उनकी रोजी-रोटी का भी जरिया है, लेकिन आज आधुनिक चकाचौंध में कुम्हारों की यह परंपरा मिट्टी में मिलती जा रही है। लोग आधुनिक चकाचौंध में पड़कर मिट्टी के दीपक को भूलते जा रहे हैं और इसके स्थान पर चाइनीज लाइट का ज्यादा उपयोग कर रहे हैं। हावड़ा में मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हारों की आज माली हालत खराब होती जा रही है। दीये तले अंधेरे की कहावत उन पर सटीक बैठती है। जो कुम्हार दीये बनाकर अपनी रोजी-रोटी चलाता है और दूसरों के घर को रोशन करता है। वहीं कुम्हार आज आर्थिक संकट से जूझ रहा है। एक सप्ताह बाद दीपावली है। एक ओर बाजारों में लाइटों की चमक दिखने लगी है। वहीं पारम्परिक दीये कहीं न कहीं लुप्त होते नजर आ रहे हैं। हावड़ा के पिलखाना स्थित कपूरगली अर्थात भाड़पट्टी में सालों से दीये बनाये जाते हैं परंतु अब ये दीये जलने से पहले ही अपनी रोशनी खाेते जा रहे हैं। उनके पास बस केवल जिंदा रहने का ही जरिया है। इतने भी रुपये नहीं है कि वे अपनी सहूलियत के लिए कोई सामान ले पाये।
24 मे से 18 घंटे तक करना पड़ता है काम
करीब 18 घंटे दीये बनानेवाली पूजा प्रजापति का कहना है कि वे आंख खुलने और रात में आंख बंद होने तक सिर्फ दीये बनाने का काम करती है। इसमें मेहनत ज्यादा और आमदनी कम है।
केवल जिंदा रहने के लिए है आमदनी
जीवन प्रजापति ने कहा कि कई बार राज्य सरकार से मदद की गुहार लगायी गयी कि उनकी माली हालत को सुधारने में सहायता मिले, मगर ऐसा नहीं हुआ। वे दीये बनाते हैं जो कि बाजार में हजार दीये 800 रुपये में बेचते हैं और उसके बदले विक्रेता 1500 व 1600 रुपये में हजार दीये मार्केट में बेचते हैं।
मिट्टी के दामों को कम करने की अपील की गयी थी
धर्मेंद्र कुमार ने कहा कि सबसे ज्यादा समस्या मिट्टी को लेकर होती है। मिट्टी को सुंदरवन क्षेत्रों से लाया जाता है। इसे ट्रकों के जरिये यहां लाया जाता है। ऐसे में रास्तों में कई दिक्क्तें होती हैं। पुलिस जुर्माना के तौर पर हजारों रुपये ले लेती है। इससे काफी ज्यादा नुकसान होता है। इससे मिट्टी के विक्रेता अपने दामों में इजाफा करते हैं। इसे राज्य सरकार से कई बार अपील की गयी की कि मिट्टी के दामों में कमी हो लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। ऐसे में जो परिवार अभी काम कर रहे हैं उनकी भावी पीढ़िया इससे नहीं जुड़ेगी। यह हस्तकला धीरे-धीरे लुप्त होती चली जायेगी।