नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोजन से छूट नहीं होती। प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) रिश्वत मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनाए गए 1998 के फैसले को सर्वसम्मति से पलट दिया। पांच न्यायाशीधों की पीठ के फैसले के तहत सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोजन से छूट दी गई थी। प्रधान न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए कहा कि रिश्वतखोरी के मामलों में संसदीय विशेषाधिकारों के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं है और 1998 के फैसले की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है। अनुच्छेद 105 और 194 संसद और विधानसभाओं में सांसदों और विधायकों की शक्तियों एवं विशेषाधिकारों से संबंधित हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पीठ के लिए फैसले का मुख्य भाग पढ़ते हुए कहा कि रिश्वतखोरी के मामलों में इन अनुच्छेदों के तहत छूट नहीं है क्योंकि यह सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट करती है।
पहले भी अदालत तक आया था यह मामला
बता दें कि 20 सितंबर, 2023 को शीर्ष अदालत ने अपने 1998 के फैसले पर पुनर्विचार करने पर सहमति जताते हुए कहा था कि यह राजनीति की नैतिकता पर महत्वपूर्ण असर डालने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह मुद्दा 2019 में शीर्ष अदालत के सामने आया, जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ जामा से झामुमो विधायक और पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। वह झामुमो रिश्वत कांड में आरोपी थीं। गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने यह कहते हुए मामले को पांच न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया था कि इसका व्यापक प्रभाव है और यह पर्याप्त सार्वजनिक महत्व का है।