दुनिया की है यही रीत
कहीं है हार तो कहीं है जीत।
क्षेत्र हो खेल का
या हो शिक्षा का
कला का या राजनीति का,
हर जगह छिड़ा है युद्ध
हार और जीत का।
सबके मुँह पर है यही गीत
कि हासिल करनी है हमें जीत।
याद आती हैं बातें बचपन की,
जहाँ नहीं थी चिंता,
हार और जीत की ।
बचपन के वो दिन कितने अच्छे थे,
कहीं नहीं था झूठ, सभी सच्चे थे।
तब शौक था बड़े होने का,
पर नहीं था पता ऐसे दिनों का,
जब लगा हो चस्का सबको जीत का।
नहीं देखना है किसी को भी
मुँह हार का,
हर तरफ है खेल
हार और जीत का।
काश बचपन के वो दिन
फिर लौट आएँ
जी करता है एक बार फिर
बच्चे बन जाएँ।
करते रहें हर वक्त सिर्फ नादानी
न ही कोई खेल है जीतना,
और न ही कोई बाजी है हारनी।।
– रश्मि प्रधान
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