‘भावनात्मक अवसाद से गुजर रहे छात्रों पर अतिरिक्त ध्यान देने की जरूरत’ | Sanmarg

‘भावनात्मक अवसाद से गुजर रहे छात्रों पर अतिरिक्त ध्यान देने की जरूरत’

हॉस्टल में नियमित अंतराल पर काउंसलिंग सेशन हो आयोजित
सन्मार्ग संवाददाता
कोलकाता : जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रथम वर्ष के छात्र की अस्वाभाविक मौत के बाद एक बार फिर से युवा वर्ग के भावनात्मक अवसाद से ग्रसित होने की चर्चा तेज हो गई है। युवावस्था भावनात्मक और व्यवहारिक क्षेत्रों में भारी उथल-पुथल से भरी होती है। मनोवैज्ञानिकों की मानें तो शहरीकरण और आधुनिकीकरण के इस दौर में समाज में बदलावों के कारण आज कई युवा सामाजिक मानदंडों के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत में युवाओं के बीच भावनात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याओं की व्यापकता दर 13.7% से 50% तक है। भावनात्मक समस्याओं की व्यापकता लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक पाई जाती है। इंटरनलाइज़िंग सिंड्रोम एक आम मनोरोग समस्या है। करीब 28.6 % युवा इंटरनलाइज़िंग सिंड्रोम के शिकार हैं। बीते कुछ वर्षों में युवाओं में मानसिक बीमारी और कुत्सित व्यवहार की व्यापकता में वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों की गंभीरता को इस बात से समझने की जरूरत है कि देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा युवा वर्ग है। इसका मतलब है समाजिक तौर पर भावनात्मक अवसाद से जूड़ी बीमारी एक बड़ी परेशानी है। मनोवैज्ञानिक डॉ. संजय गर्ग ने बताया कि कॉलेज के तीन वर्ष छात्रों के लिए काफी अस्पष्ट समय होता है। किशोरावस्था को पार कर युवावस्था में पहुंचे छात्र मानसिक विकारों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। भावनात्मक अवसाद से जूझ रहा एक युवा अचानक शांत और एकांत में रहने लगता है। वह अंदर ही अंदर एक द्वंद में उलझा होता है। ऐसे युवा जो परिवार से दूर हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं उनकी सहायता के लिए हॉस्टल वार्डन को सदेव तत्पर रहना चाहिए। वार्डन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी युवा छात्रों के व्यवहार में किसी भी तरह के बदलाव को चिन्हित कर उससे संवाद करना है। वहीं युवाओं के लिए भी जरूरी है कि अगर वह किसी विकृत व्यवहार के शिकार हुए हैं तो वह अपने परिवार के सदस्यों या फिर मित्रों से इस बात को साझा करें। साथ ही हॉस्टल में छात्र छात्राओं के लिए समय समय पर काउंसलिंग सेशन का आयोजन करना चाहिए। इसके साथ ही यह परिवार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह छात्रों की परेशानी को सदेव प्राथमिकता दें। कई बार लापरवाही का परिणाम गंभीर होता है। मनोवैज्ञानिक अनिंदिता रायचौधरी बताती हैं कि इंटरनलाइज़िंग सिंड्रोम युवा वर्ग में एक बड़ी परेशानी है। कई मामलों में पाया गया है कि भावनात्मक अवसाद का सामना कर रहे अधिकांश युवा किसी न किसी तरह के रैंगिंग के शिकार होते हैं। कठोर शब्द का इस्तेमाल करना, एक बड़े समूह के सामने तिरस्कार करना, कई बार युवाओं पर गहरा प्रभाव छोड़ा जाता है। ऐसे छात्र स्वयं किसी बड़े समूह का हिस्सा बनने से कतराते हैं। अन्य छात्रों के साथ आसानी से घुलते मिलते नहीं और चिड़चिड़ापन से जूझते रहते हैं। कई मामलों में धीरे- धीरे परिजनों से बातचीत भी बंद करने लगते हैं। ऐसे स्थिति में परिजनों को स्वयं पहल करनी चाहिए। उन्हें बच्चे को बातचीत करने की पूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए। युवा वर्ग के छात्र छात्राओं को यह बात समझने की जरूरत है कि समाज का हर वयस्क व्यक्ति या तो कुरीतियों का शिकार या गवाह रहा है। ऐसे में अपनी परेशानियों को साझा करने पर उनकी परिशानियों को वह समझेंगे और बेहतर सुझाव देंगे।

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