एक संत अपने शिष्य के साथ वन में विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सामने से कुलांचे मारते हुए एक हिरण आया और पेड़ों के झुरमंटों में गायब हो गया। कुछ ही क्षणों के पश्चात खरगोश का जोड़ा मस्ती के साथ दौड़ता-खेलता नजर आया और इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति हाथ में लाठी लिए हुए उधर से निकला। वह शरीर से इतना कृशकाय और दुर्बल प्रतीत होता था, वह बड़ी मुश्किल से लाठी को संभालते हुए चला जा रहा था। झुर्रियों से भरा उसका पीतवर्ण मुख देखकर शिष्य का मन बहुत अशांत और दुखी हो उठा। उत्सुकतावश अपने गुरु से पूछा – ‘गुरुवर ! मेरे मन में एक जिज्ञासा है, अतः आपसे एक प्रश्न पूछना था? पूछूं?
संत ने कहा -‘अवश्य पूछो वत्स !’
शिष्य बोला -‘गुरूजी! हिरण, खरगोश तथा अन्य पशु-पक्षी कभी बीमार होते नहीं देखे ! वे तो सदा सर्वदा मस्ती में कुलांचे भरते ही दृष्टिगोचर होते हैं, जबकि मनुष्य प्रायः किसी-न-किसी व्याधि से ग्रस्त देखे जाते हैं। इसका कारण क्या है?’
मंद -मंद मुस्कुराते हुए वीतरागी महात्मा ने अपने भावुक शिष्य को समझाया -‘वत्स, पशु-पक्षी प्रकृति के अनुसार चलते और व्यवहार करते हैं। खरगोश, हिरण, गाय, बकरी आदि भूख लगने पर स्वाद की चिंता किए बिना, हरी-हरी घास खाकर पेट भर लेते हैं। दौड़-दौड़कर और चलकर, टहलकर अपना खाया-पिया पचा लेते हैं, इसलिए वे कभी बीमार नहीं पड़ते।
जबकि मानव नामक जीव ने ‘जीने के लिए खाने’ के लक्ष्य की जगह, तरह-तरह के यानी विभिन्न प्रकार के सुस्वादु और चटपटे पदार्थों को खाने के लिए जीना; अपना लक्ष्य बना लिया है। जिव्हा व अन्य इन्द्रियों पर नियंत्रण न रख पाना ही मनुष्य के शारीरिक व मानसिक व्याधियों का मुख्य कारण बना हुआ है। इतना कहकर संत मौन हो गए।
शिष्य को अपने प्रश्न का उत्तर भी मिल गया। वह संतुष्ट मन से संत के साथ आगे बढ़ गया।
– संजय अग्रवाल (अन्जु सिंगड़ोदिया )
जंगल के पशु-पक्षी कभी बीमार क्यों नहीं पड़ते?
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