‘मुझे भी एक घड़ी दिला दो’ | Sanmarg

‘मुझे भी एक घड़ी दिला दो’

रोज की तरह शाम को छत पर टहल रही थी, तभी छत के कोने में एक बच्चे को रोते देखा… कुछ दिन पहले यही बच्चा हंसते हंसते मेरे पास आया था और खुशी से बोला, ‘दीदी, मैं क्लास में फर्स्ट आया हूं।’ उस दिन से हमारे बिल्डिंग के अधिकतर लोग बिट्टू को टॉपर बुलाने लगे थे। उनमें से मैं भी एक थी। आज उसे रोते देखा तो चिंता से उससे रोने की वजह पूछी,उसने रोते-रोते जवाब दिया, ‘दीदी, मम्मी ने मारा।’ मैंने कहा, ‘ज़रूर तुमने कोई बदमाशी की होगी।’ अब बच्चों का क्या है, पल में रोते हैं, पल में चुप हो जाते हैं। मैंने उसे चुप होने को कहा और कहा, ‘चलो, आइसक्रीम खा कर आते हैं मम्मी को नहीं देंगे।’ बिट्टू ये बात सुनते ही खुश हो गया और हम आइसक्रीम खाने चले गए।
आइसक्रीम खाते-खाते मैंने बिट्टू से पूछा, ‘मम्मी ने तुम्हें क्यों मारा?’ बिट्टू बोला, ‘दीदी, मैंने तो बस मम्मी से कहा ​कि मुझे भी एक घड़ी दिला दो। दीदी, आपको पता है मेरे सारे दोस्तों के पास बहुत महंगे-महंगे खिलौने और घड़ी है, इसलिए मुझे भी चाहिए।’ अब जाकर मुझे सारी बात समझ आई। बिट्टू को घड़ी की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसे घड़ी इसलिए चाहिए क्योंकि उसे अपने दोस्तों को दिखाना है। अब बच्चे जो देखते हैं उन्हीं चीजों की मांग करते हैं। उस वक्त मैंने बिट्टू से कहा, ‘तुम्हारी दीदी तुम्हें घड़ी दिलादेगी। बस, तुम प्रॉमिस करो कि तुम हमेशा क्लास में फर्स्ट आओगे।’ बिट्टू खुश हो गया और वहां से उठ कर अपने घर की ओर दौड़ने लगा। मैंने पूछा, ‘ क्या हुआ ? कहां जा रहे हो दौड़ते-दौड़ते ?’ उसने ऊंची आवाज में कहा, ‘मैं मम्मी को आइसक्रीम देने जा रहा हूं, नहीं तो पिघल जाएगी।’
मैं कुछ देर वहीं मौन बैठी रही और मन ही मन सोचती रही कि एक दस साल के बच्चे से दुनियादारी की उम्मीद नहीं कर सकती हूं। बिट्टू अभी बिल्कुल नहीं समझ सकता कि भले ही उसके पास महंगी चीज न हो; पर अपने क्लास के बच्चों से वह कहीं अधिक समझदार है। यही उसकी बहुत बड़ी पूंजी है।’
एक महीने पहले ही तो बिट्टू की मम्मी हमारे घर आई थी मिठाई लेकर कि बिट्टू का एक बड़े स्कूल में एडमिशन हो गया है। आप सोच रहे होंगे कि उनकी स्थिति खराब है, पर उनकी आर्थिक स्थिति उतनी खराब नहीं है। उसकी मम्मी घड़ी दिला सकती है मगर इस छोटी सी उम्र में फ़िज़ूल और दिखावटी आदतें शायद नहीं डालना चाहती है। रही बात चीजों की तो चीजों का अच्छा होना ज़रूरी है; सस्ते और महंगे से क्या फर्क।
और बड़े-बड़े स्कूलों के माहौल की यही तो एक कमी है, माना कि पढ़ाई और अन्य सुविधाएं देते हैं पर वहां का माहौल एक फर्क कर देता है जो बिट्टू जैसे न जाने कितने बच्चों के मन में घर कर जाता है और वे सारे बच्चे ये मान बैठते हैं कि वे बाकियों से कम हैं… और यह फर्क पूरी ज़िन्दगी रह जाता है। यह कड़वा है, पर सच है।
अब यहां आप क्या कहेंगे ? न उस बच्चे की गलती है न उसके मम्मी की… लेकिन बड़े-बड़े स्कूल शायद यह सिखाना भूल जाते हैं कि दो लोगों के बेंच पर तीन बच्चे भी बैठ सकते हैं, इसके अलग ही मजे हैं, कपड़ों का क्या है इंसान अच्छे होने चाहिए,जो बात हुनर में है वो हुस्न में कहां…. और भी बहुत कुछ। आप समझ ही रहे होंगे मेरी बातें।
बस ऐसी ही स्थितियों में मां-बाप बुरे लगने लगते हैं। बच्चे तो गीली मिट्टी की तरह होते हैं जैसे ढाल दो, वैसे ढल जाते हैं। लेकिन स्कूल इसी असमानता में ढाल देता है और कहने के लिए बस यूनिफॉर्म ही समान रह जाती है बस और कुछ नहीं। माना बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है पर हम सबने कभी न कभी इस फर्क को महसूस किया हैं और यह फर्क शायद कभी नहीं मिटेगा।

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